रविवार, 1 जुलाई 2012

= स्मरण का अँग २ =(३७-८)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =* 
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*दादू ऐसे महँगे मोल का, एक सांस जे जाइ ।* 
*चौदह लोक समान सो, काहे रेत मिलाइ ॥ ३७ ॥* 
हे जिज्ञासु ! जब भजन की पूर्ण अवधि हो जाती है, तब भजन करने वाले का एक-एक श्वास चौदह लोक के समान मूल्यवान होता है । जैसे कोई मूर्ख मनुष्य को रत्न प्राप्त हो जावे और वह उसके मूल्य को न समझकर पत्थर से पीस कर उसे मिट्टी में मिला दे, तद्वत् ही रत्न रूप तो मनुष्य देह के अमूल्य श्वास हैं, और पत्थर रूप शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध जो विषय हैं, इन को भोगते हुए संसारीजन इस अमूल्य जीवन को व्यर्थ ही गँवा रहे हैं । ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज उपदेश करते हैं कि हे नादानजनों ! अमूल्य रत्नरूप इस मनुष्य जीवन तथा इसके श्वासों को व्यर्थ ही क्यों खोते हो? प्रभु के भजन द्वारा इस जीवन को सफल बनाओ ॥ ३७ ॥ 
कश्यप चौदह लोक को, श्वांस सटे दे राज । 
जाट खेत को दूसरो, लाल गमाये बाद ॥ 
दृष्टान्त - कश्यप ऋषि जिन्होंने अपने नाम से कश्मीर बसाया था, उनका जब अन्त समय आया, तब उनके पुत्र, देवता और राक्षस सबने आकर दर्शन किये और बोले - पिता जी ! हमें आपकी सेवा के लिए आज्ञा करो । कश्यप बोले - सेवा करोगे ? देवता और असुर बोले - जरूर करेंगे । कश्यप ऋषि ने विचार किया कि इनको मनुष्य देह के श्वासों की कीमत से अवगत कराऊँ । बोले - पुत्रों ! इस समय आप लोग मुझे एक श्वास दे दो, तो मैं ईश्वर का भजन कर लूँगा । यह सुनकर देवता लोग आपस में देखने लगे और विचार कर बोले - पिता जी ! और कुछ मांग लो, यह तो हम दे नहीं सकते । कश्यप बोले - जो एक श्वास तुम मुझे दे दो, तो मैं उसे चौदह लोक का राजा बना दूँ । देवता बोले कि आप राजा बना सकते हो, परन्तु हमारे पास श्वास देने को नहीं है । कश्यप ने यह ज्ञान करा दिया कि यह श्वास इतना अमूल्य है जो कि चौदह लोक का राज देने पर भी नहीं प्राप्त होता है ।
भवन चतुर्दश मोल का, एक श्वास है सोय । 
ऐसा धन हरि नाम बिन, "तुलसी" व्यर्थ न खोय ।
हरि घाट पर आइके, करिये हरि पिछान । 
श्वास एक पावै नहीं, दिये त्रिलोकी दान ॥ 
द्वितीय दृष्टान्त - एक जाट अपने खेत में पक्षियों को उड़ाता था । उसने नदी में जाकर पानी पीया और पक्षी उड़ाने के लिए किनारे से मिट्टी के टेढ़े उखाड़ने लगा । उस जगह एक घड़ा निकल आया । उसको खोलकर देखा तो गोल-गोल पत्थर के समान टुकड़े भर थे । उठा कर ले आया । खेत में जो ढूला बना हुआ था, उस पर लेकर चढ़ गया । उन गोल-गोल पत्थरों को गोफिया में रख कर घुमा-घुमाकर पक्षियों को उड़ाता हुआ गहरे पानी में फेंकने लगा । एक पत्थर गोफिया में से निकलकर जमीन पर गिर पड़ा । इतने में उसकी घरवाली बच्चे को गोद में लिए रोटी लेकर आ पहुँची । वह रोटी खाने लगा । बच्चा खेलता-खेलता उस पत्थर को उठा कर माँ के पास ले आया । वह बोले - यह तो बड़ा अच्छा लाल लाल पत्थर है । पति बोला - पहले आती तो झोली भर देता । ऐसे पत्थर तो मैंने पक्षी उड़ाने के लिए एक-एक करके सब नदी में फेंक दिए । वह बोली चलो ! इससे ही बच्चा खेलेगा । घर जाकर बच्चे ने उसको डाल दिया । जाटनी ने उठाकर घर की एक ताक में रख दिया । कुछ समय बाद काल पड़ गया । जाट बोहरा से बोला कि खाने को अनाज दे दो । बोहरा बोला - भाई ! अनाज तो इस समय उधार देने को नहीं हैं । तब जाट को जाटनी ने वह पत्थर दिया और कहा - इसी का कुछ ले आओ, यह चमकता हुआ दिखता है । वह पत्थर लेकर जाट ने बोहरा को दिया । बोहरा ने देखा और मन में समझा कि यह तो कीमती पत्थर लगता है । उसने जाट को एक धड़ी अनाज दे दिया । जाट बहुत राजी हुआ और मन में सोचने लगा - मैंने बनिये को ठग लिया, पत्थर का एक धड़ी अनाज ले आया । बनिया उस पत्थर को अपने रिश्तेदार के द्वारा जौहरी के पास ले गया । जौहरी बोला - यह तो लाल है, राजा के दरबार में इसकी कीमत होगी । राज दरबार में राजा के समक्ष जौहरियों ने कीमत की । यह लाल तो ऐसे सात राजाओं के राज्य की कीमत के समान है । राजा ने पूछा - यह लाल तुम कहाँ से लाए ? बनिए ने उपरोक्त सब कथा दरबार में सुना दी । राजा ने जाट को बुलाया । जाट आया, राजा को नमस्कार किया और उसे वह लाल पत्थर दिखाया । राजा बोला - यह तुम कहाँ से लाए ? जाट बोला - मुझे तो एक घड़ा मिला था, हरिया उड़ा-उड़ा कर सब नदी में फेंक दिए । यह एक नीचे गिर गया था । पूर्वोक्त कथा जाट ने कह सुनाई । राजा बोला - मुर्ख ! यह पत्थर नहीं है, लाल है । इसकी कीमत बहुत है । जाट - कितनी है ? राजा - जो हमारा यह राज्य है, ऐसे-ऐसे सात राज्यों की कीमत के समान इस लाल की कीमत है । जाट उन सब लाल को याद करके फूट-फूट कर रोने लगा और "हार्ट फेल" होकर मर गया । वैसे ही, हे जिज्ञासुओ ! इस मनुष्य देह के अमूल्य श्वास लाल के समान अमूल्य हैं, जिन्हें हम अज्ञानतावश व्यर्थ खो रहे हैं ।
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*अमूल्य श्वास*
*सोई सांस सुजाण नर, सांई सेती लाइ ।* 
*कर साटा सिरजनहार सौं, महँगे मोल बिकाइ ॥ ३८ ॥* 
दादूजी कहते हैं - हे जिज्ञासु ! वही जिज्ञासु चतुर है, जो अपने मनुष्य शरीर के श्वासों को प्रभु भजन में लगाता है, क्योंकि जो श्वास ईश्वर-भजन में लगते हैं, मानो वही श्वास महँगे मोल में बिके हैं । शेष तो सब व्यर्थ ही जाते हैं । क्षण-क्षण में नष्ट होने वाले नश्वर श्वासों के बदले में अक्षय राम-धन को संचित करना ही बुद्धिमानी है ॥ ३८ ॥
(क्रमशः)

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