रविवार, 22 जुलाई 2012

= स्मरण का अँग २ =(८६/८)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*करणी बिना कथणी*
*दादू सबही वेद पुराण पढ़ि, नेटि नाम निर्धार ।* 
*सब कुछ इन ही मांहि है, क्या करिये विस्तार ॥ ८६ ॥* 
दादूजी कहते हैं - सतगुरु महाराज उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! सारे वेद और सारे ही पुराण और धर्म-शास्त्र आदि सब पढ़ने के बाद भी अन्त में राम-नाम का ही आसरा लेना पड़ता है अर्थात् मल, विक्षेप, आवरण, इन तीनों दोषों का राम-नाम के स्मरण से ही नाश होता है । हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण ज्ञान और ध्यान यह राम-नाम के स्मरण में ही है । इसलिए अब हम राम-नाम की इससे अधिक क्या महिमा कहें ॥ ८६ ॥ 
दृष्टान्त - एक रोज देवगुरु बृहस्पति जी महाराज स्वर्ग में इन्द्र के पास गए । गुरु को देखकर इन्द्र न तो उठा और न प्रणाम किया । गुरुदेव जान गए कि इसको विद्या का अहंकार आ गया । तब बोले :- इन्द्र एक समुद्र से पानी का घड़ा भर कर मंगाओ । मंगा लिया । एक सींक मंगाओ । सींक आ गई । देवगुरु ने सींक हाथ में लेकर घड़े में डुबाई । एक पानी की बूँद अपने अंगूठे के नाखून पर रखी और बोले, हे इन्द्र ! समुद्र की तरह तो विद्या का सागर है और जितना इस घड़े में पानी है, उतनी विद्या मैंने ग्रहण की है । और एक बून्द जल की यह नाखून पर है, इतनी विद्या का दान मैंने तुम्हें दिया है । आप किस अहंकार में बैठे हो ? यह अहंकार तो आपको नीचे गिराने वाला है । इन्द्र सुनते ही अहंकार रहित होकर गुरुदेव के चरणों में गिर पड़ा और क्षमा याचना की और बोला - "हे गुरुदेव ! आपके वचन सत्य हैं ।" गुरुदेव अपने शिष्यों में अहंकार नहीं रहने देते हैं और फिर राम-नाम के स्मरण का उपदेश करते हैं ।
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*नाम अगाधता
*पढि पढि थाके पंडिता, किनहुँ न पाया पार ।* 
*कथि कथि थाके मुनिजना, दादू नाम आधार ॥ ८७ ॥* 
हे जिज्ञासुओं ! शास्त्रों के मर्म को जानने वाले कितने ही पंडित विद्वान थक गए हैं । किसी ने भी शास्त्र आदि या शास्त्र-प्रतिपाद्य परमेश्वर का पार नहीं पाया है और मुनिजन भी शास्त्रों का मनन करते-करते थक गए हैं, परन्तु प्रभु की सत्ता कहिए, सामथ्र्य का किसी ने भी पार नहीं पाया है । अधिक क्या महिमा कहे ? जीव आत्मा का तो एक राम-नाम का स्मरण ही आधार है ॥ ८७ ॥(चारों वेद और धर्मशास्त्रों के पठन मात्र से क्या लाभ, यदि ब्रह्मतत्व को नहीं जाना । जैसे चम्मच खीर आदि का स्वाद उनमें रहते हुए भी नहीं जानती ।)
दृष्टान्त - यमुना किनारे एक पंडित कथा बांचते थे । एक गूजरी यमुना के परले किनारे रहती थी । वह दूध लेकर रोज मथुरा में बेचने आती । एक रोज जहाँ कथा हो रही थी, वहाँ खड़ी हो गई और सुना कि राम-नाम संसार-समुद्र से पार कर देता है । गूजरी ने देखा, जब राम-नाम समुद्र से पार कर देता है, तो नदी तो बहुत छोटी है । इससे पार होने में तो कोई संशय नहीं है । तब तो गूजरी यह विचार करती-करती यमुना के किनारे-किनारे अपने गाँव के समीप जा पहुँची और राम-राम कहती जल के ऊपर पाँव रखती हुई परले किनारे पहुँच गई और बहुत राजी हुई । विचार किया कि उस पण्डित की कथा अगर मैं पहले सुन लेती, तो नौका वाले को इतने पैसे आने-जाने के क्यों देती ? खैर ! अब भी आगे को पैसे तो बच गए मेरे । कल पण्डित जी को लाऊँगी और उनको खीर का भोजन कराऊँगी । दूसरे रोज दूध लेकर राम-राम कहती हुई जल के ऊपर होकर सीधी मथुरा में आ गई । पण्डित जी के पास जाकर बोली :- महाराज, मैं दूध देकर आती हूँ, आप कथा से निपट लो, फिर मेरे साथ चलना । आपको आज मैं खीर का भोजन कराऊँगी । पण्डित जी ने कहा :- ठीक है । दूध देकर वापिस आई । पण्डित जी को साथ में लेकर गाँव की सीध में जमुना के किनारे-किनारे चल पड़ी । पण्डित जी बोले :- माता, इधर कहाँ चलती है, नौका का घाट तो पीछे रह गया । गूजरी बोली :- महाराज ! अपन को नौका-घाट से क्या मतलब है ? पण्डित जी ने जाना, इसके गाँव की सीध में थोड़ा पानी होगा । पण्डित जी तो यह विचार करते रहे और गूजरी राम नाम कहती जमुना पार हो गई और गुजरी ने पीछे फिर देखा कि पंडित जी तो दूसरे किनारे ही खड़े हैं । गूजरी ने आवाज दी- "महाराज ! आ जावो । पण्डित जी बोले - आ गए । पण्डित जी ने धोती ऊँची चढ़ा ली और पानी में उतरे । गड़प से कमर तक पानी आ गया । पण्डित जी बाहर निकल आए । गूजरी बोली :- महाराज आ जाओ । पण्डित बोला :- गूजरी तू हमें मारने को लाई है या खीर खिलाने को ? यहाँ तो पानी बहुत गहरा है । गूजरी बोली :- आप कहते थे, राम-नाम के स्मरण से समुद्र से पार हो जाते हैं । यह तो छोटी नदी है, इससे पार होने में क्या संदेह है ? पण्डित जी बोले :- वह तो कहने की बात थी । तो गुजरी ने कहा :- महाराज, खीर वही खाएगा, जो मेरी तरह पार आ जाएगा । आपको राम-नाम का निश्चय नहीं है । जिनको नाम का आधार है, वही संसार समुद्र से पार होते हैं । 
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*निगम हि अगम विचारिये, तऊ पार न आवै ।*
*ताथैं सेवग क्या करै, सुमिरण ल्यौ लावै ॥ ८८ ॥* 
हे जिज्ञासु ! निश्चय ही चारों वेद और छह शास्त्र, और भी ईश्वर की महिमा करने वाले जितने भी धर्म ग्रन्थ हैं, उन सबका चाहे जितना यत्नपूर्वक विचार कहिए, पठन पाठन करें, फिर भी उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वर का किसी ने पार नहीं पाया है । ईश्वर की महिमा इतनी अगम अगाध है, तो हे गुरुदेव ! उसको जानने के लिए सेवक का क्या कर्तव्य है ? उत्तर :- नाम - स्मरण में ही एकाग्र रहो ॥ ८८ ॥
(क्रमशः)

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