मंगलवार, 24 जुलाई 2012

= स्मरण का अँग २ =(९२/४)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= स्मरण का अंग - २ =*
.
*विरह पतिव्रत*
*दादू एकै दशा अनन्य की, दूजी दशा न जाइ ।*
*आपा भूलै आन सब, एकै रहै समाइ ॥ ९२ ॥* 
दादूजी कहते हैं - हे जिज्ञासुओं ! जो परमेश्वर का अनन्त भक्त है, उसकी एक दशा कहिए, एक निष्ठा परमेश्वर में ही बनी रहती है और दूसरे जो मायावी प्रपंच हैं, उनमें किंचित् भी आसक्ति नहीं रखता है । ऐसा कोई बिरला परमेश्वर का अनन्य भक्त है । वह अपने मन के मिथ्या अभिमान और बाह्य सम्पूर्ण प्रपंच भूलकर परमेश्वर में ही एकरस रहता है ॥ ९२ ॥ 
अनन्यचेता सततं यो मां स्मरति नित्यश: ।
तस्याहं सुलभ: प्रार्थ ! नित्ययुक्तस्य योगिन: ॥ 
जगन्नाथ परब्रह्म सम, अनन्य भक्त सो जान ।
श्रुति स्मृति सब कहें, ते जन हरि के प्राण ॥ 
.
*दादू पीवै एक रस, बिसरि जाइ सब और ।* 
*अविगत यहु गति कीजिये, मन राखो इहि ठौर ॥ ९३ ॥* 
*आत्म चेतन कीजिए, प्रेम रस पीवै ।* 
*दादू भूलै देह गुण, ऐसैं जन जीवै ॥ ९४ ॥* 
ब्रह्मर्षि सतगुरु महाराज जिज्ञासुओं के आत्म-कल्याण के लिये परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! समस्त सांसारिक जनों का जो मन सम्पूर्ण विषय-विकारों में व्याप्त हो रहा है, यह इन विकारों को भूल कर अब केवल एक आपके ही नाम-स्मरण का रस पान करे । हे प्रभु ! इन जिज्ञासुओं की ऐसी सद्बबुद्धि करो कि ये मानव सम्पूर्ण विषय-विकारों से विरक्त होकर आपके नाम-स्मरण में ही एकाग्र बने रहें । हे परमात्मन् ! आत्मा कहिए इस मन को चैतन्य कर अन्तर्मुखी बनाइये,जिससे कि यह मन परब्रह्म के प्रेम का आस्वादन करे । इस प्रकार ब्रह्मर्षि उपदेश करते हैं कि जो जिज्ञासु शरीर के सम्पूर्ण गुणों को भुलकर परमेश्वर का स्मरण करते हैं, वही जीवनमुक्त होते हैं । और यह चेतन आत्मा ही मन और बुद्धि में प्रतिबिम्बित होकर शरीर और इन्द्रियों में भी चेतनता प्रकट करता है । और यदि यह आत्मा देहाध्यास को त्याग कर अन्तर्मुख हो जावे, तो विषय-वासना से छुटकारा पाकर स्वयं ही पृथक्(अलग) हो जाएगा और शरीर को शीत, उष्ण(सर्द, गर्म) आदि द्वन्द्वों का तनिक भी भान नहीं होवेगा । जीवनमुक्त अवस्था प्राप्त होने पर यह मन परब्रह्म में ही स्थिर हो जावेगा ॥ ९३-९४ ॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें