बुधवार, 25 जुलाई 2012

= स्मरण का अँग २ =(९५/६)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*स्मरण नाम अगाधता*
कहि कहि केते थाके दादू, सुणि सुणि कहु क्या लेइ । 
लौंण मिलै गलि पाणियां, ता सम चित यों देइ ॥ ९५ ॥ 
दादूजी कहते हैं - ब्रह्मर्षि दादूदयाल महाराज उपदेश करते हैं कि कितने ही विद्वान् आत्मा की व्याख्या कर-करके थक गए हैं और सुन-सुन करके तो कोई ले ही क्या सकता है ? हे जिज्ञासुओं ! जिस प्रकार नमक जल में गल कर जलरूप हो जाता है, उसी प्रकार अपने चित्त को परमेश्वर में एकाग्र करने से स्वस्वरूप आनन्द प्राप्त है तथा ब्रह्म के प्रवचन करने से कोई ब्रह्म नहीं होता है तो प्रवचन सुनने वालों का क्या कहना है ? किन्तु आत्म-साक्षात्कार तो केवल अनुभव का ही विषय है और जब साक्षात्कार हो जाता है, तब कथन और श्रवण, ये दोनों ही अवस्था विलय हो जाती हैं ॥ ९५ ॥ 
गई पूतली लूण की, थाह सिन्धु को लेन । 
चलत चलत जल मिल गई, पलटि कहै को बैन ।
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*दादू हरि रस पीवतां, रती विलम्ब न लाइ ।* 
*बारम्बार संभालिये, मति वै बीसरि जाइ ॥ ९६ ॥* 
हे जिज्ञासु ! हरि की भक्ति रूपी रस-पान करने में अब विलम्ब नहीं करना चाहिये । और पुन: पुन: अन्त:करण में यह ध्यान रखे कि कहीं मन, नाम-स्मरण को भूलकर अन्यत्र स्थान में तो नहीं जा रहा है ॥ ९६ ॥ 
काल करे सो आज कर, आज करे सौ अब । 
पल में परलै होइगी, फेरि करेगो कब? ॥ 
श्व: कार्यमद्य कुर्वतं, पूर्वा ह्ने चापराह्नीकम् । 
न हि मृत्यु: प्रतीक्षेत, कृतमस्य कृतं न वा ॥
(क्रमशः)

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