*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*निर्गुण नाम महिमा महात्तम*
दादू निर्गुणं नामं मई, हृदय भाव प्रवर्त्तितम् ।
भ्रमं कर्मं किल्विषं, माया मोहं कंपितम् ॥ ७९ ॥
दादूजी कहते हैं - हे जिज्ञासुओ ! निराकार प्रभु का नाम ही स्वरूप है । इसलिए राम-नाम में अपने मन को एकाग्र करके हृदय में प्रति क्षण राम-नाम का ही जाप करो । इस जाप से भ्रम, कर्म इत्यादिक और कलियुग के सम्पूर्ण पाप तथा माया और मोह भयभीत हो जावेंगे, डर जावेंगे । नाम-स्मरण के प्रभाव से काल के जाल का भी नाश होवेगा और यम के दूत भी भयभीत होंगे ॥ ७९ ॥
छ: सौ सहस्त्र इकविंश(२१६००) का, अजपा जाप विचार ।
यूं दादू निज नाम ले, काल पुरुष को मार ॥
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*कालं जालं सोचितं, भयानक यम किंकरम् ।*
*हर्षं मुदितं सदगुरुं, दादू अविगत दर्शनम् ॥ ८० ॥*
यदि सभी को भय "कहिए", डर उत्पन्न हो गया तो फिर भजन का क्या फल हुआ? सतगुरु उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासुओ ! मोक्ष-मार्ग की सफलता में सतगुरु तो प्रसन्न होंगे कि हमारा उपदेश आज सफल हो गया, क्योंकि शिष्य को परमात्मा का दर्शन हो गया और परमेश्वर भी अति मोद को प्राप्त होंगे कि आज मेरे अंशभूत जीवात्मा ने अपने शुद्ध सत्स्वरूप को पहचान लिया है । इस अनन्य भक्ति के बिना और किसी भी साधन की गति संभव नहीं है ॥ ८० ॥
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*भगवद् दर्शन का अनुपम माहात्म्य*
*दादू सब सुख स्वर्ग पयाल के, तोल तराजू बाहि ।*
*हरि सुख एक पलक का, ता सम कह्या न जाहि ॥ ८१ ॥*
हे जिज्ञासुओ ! क्षण भर हरि का भजन करने से जो अनुपम सुख मिलता है, उसकी तुलना में स्वर्ग और पाताल के संपूर्ण वैभवों को विचार रूपी तराजू में रखकर विवेक से निश्चय किया, तो स्वर्ग आदि के वैभव का सुख राम-नाम के एक पल स्मरण के सुख के बराबर भी नहीं होता । इसलिए राम-नाम की महिमा अपार है ॥ ८१ ॥
सब स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिये तुला इक अंग ।
तुले न ताहि सकल मिल, जो सुख लव सतसंग ॥
विश्वामित्र वशिष्ठ के, अड़वी पड़ी विशेष ।
शिव ब्रह्मा हरि पच रहे, न्याव नवेर्यो शेष ॥
दृष्टान्त - विश्वामित्र मुनि का अपर नाम था कौशिक । वे जमनिया(बनारस के पास) के राजा थे । एक समय वे सेना के सहित दौरा करते हुए वशिष्ठ ऋषि की कुटिया पर पहुँच गए । ऋषि को जाकर नमस्कार किया । ऋषिराज बोले :- राजन् ! आज यहीं विश्राम करो । महाराज वशिष्ठ ने इनकी सेवा के लिए स्वर्ग से कामधेनु गऊ को बुलाया । गऊ ने आकर ऋषि को प्रणाम किया । ऋषि बोले :- आज राजा और राजा की सेना के लिए मन इच्छा पदार्थ रच दो । राजा ने अपनी सेना सहित ऐसा सुख भोगा जो स्वर्ग में भी दुर्लभ है । कामधेनु अपनी कला समेट कर सुबह खड़ी हो गई । राजा ने पूछा :- ऋषिराज ! रात को अद्भुत लीला कहाँ से रच दी ? ऋषि :- कामधेनु ने आपकी सेवा की है । राजा बोला :- यह गऊ मुझे दे दो । ऋषि :- यह हमारी नहीं है, पंचायत की है और स्वर्ग में रहती है, हम नहीं दे सकते । राजा :- जबर्दस्ती ले जाऊँगा । ऋषि :- जैसी इच्छा हो करो । राजा ने गऊ को खोलने का आदेश दिया । गऊ ने दस प्रकार की मलेच्छ सेना, मय हथियारों की रच ली । भारी युद्ध हुआ । सेना खत्म हो गई । राजा राज छोड़कर तप करने चले गए । कामधेनु ने अपनी सेना को देशान्तरों में भेज दिया और स्वर्ग में चली गई । विश्वामित्र ने तप करके अस्त्र-शस्त्र विद्या सीखी । फिर आकर वशिष्ठ के ऊपर आक्रमण किया । वशिष्ठ ने ब्रह्माण्ड पर अस्त्र-शस्त्र का प्रहार झेल लिया । विश्वामित्र शस्त्र फेंक कर ब्रह्मऋषि बनने के लिए ब्रह्मा की तपस्या करने लगे । ब्रह्मा बोले :- वशिष्ठ ब्रह्मऋषि कहेंगे, तो तुम ब्रह्मऋषि बन जाओगे । विश्वामित्र आए । वशिष्ठ जी बोले :- "आइए राजऋषि !" विश्वामित्र ने उनके लड़के को मार दिया । इसी क्रम से ९९ दिन में ९९ पुत्र वशिष्ठ के मार दिए । रात को वशिष्ठ की कुटिया के पीछे विश्वामित्र बात सुनने के लिए बैठे । वशिष्ठ जी की पतिव्रता स्त्री अरुन्धती देवी वशिष्ठ से बोली :- हे नाथ ! आपके ९९ पुत्र विश्वामित्र ने मार दिए । अब एक और है, उसे भी वह सुबह मार देंगे । आप उन्हें ब्रह्मऋषि क्यों नहीं कहते ? वशिष्ठ बोले :- हे प्रिये ! विश्वामित्र की तपस्या का प्रकाश त्रिलोकी में ऐसा हो रहा है जैसा कि आज शरद् पूनम के चन्द्रमा का । उन्होंने पुत्र नहीं मारे । विश्वामित्र ने यह सुना और गद्गद् हो गए । तलवार को फैंक दिया । वशिष्ठ के सामने आए । वशिष्ठ बोले :- "आओ ब्रह्मऋषि !" विश्वामित्र :-आज मैं ब्रह्मऋषि कैसे बना ? वशिष्ठ :- जब राजा रूप में आप आये थे और एक पल हमारा सत्संग किया था, उसका असर आज आप पर आ गया है । विश्वामित्र :- नहीं, मैं तपस्या से ब्रह्मऋषि बना हूँ । चलो ब्रह्माजी के पास । ब्रह्माजी ने देखा कि मामला जटिल है । बोले, चलो शंकरजी के पास । शंकरजी ने देखा :- यह सुलझना कठिन है । कहा, चलो भगवान विष्णु के पास । भगवान् विष्णु ने देखा कि मामला बहुत बड़ा है । सभी को लेकर पाताल में शेषजी के पास पहुँचे । शेषजी बोले :- तपस्या बड़ी है तो आप तपोबल से इस पृथ्वी को उठा लो । पृथ्वी नहीं उठी । वशिष्ठ से बोले, आप उठाइये । वशिष्ठ बोले :- "बड़े छोटे का मतलब नहीं है । हमारा तो कहना है कि पल मात्र के सत्संग का असर इन पर पड़ गया और ये ब्रह्मऋषि बन गए । शेषजी बोले :- वशिष्ठ के उपदेश का आप स्मरण करके पृथ्वी उठाइये । ज्यों ही मन इन्द्रियों को हृदय में खैंच कर विश्वामित्र ने वशिष्ठ के उपदेश का स्मरण किया, पृथ्वी अधर हो गई । दोनों का फैसला हो गया और राम-नाम की जय बोलते हुए सब देवता अपने-अपने लोक को प्रस्थान कर गये । ऐसी ही राम-नाम की महिमा और माहात्म्य है ।
(क्रमशः)
(क्रमशः)
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