गुरुवार, 19 जुलाई 2012

= स्मरण का अँग २ =(७६/८)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी

साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*ज्यूं जल पैसे दूध में, ज्यूं पाणी में लौंण ।* 
*ऐसे आत्मराम सौं, मन हठ साधै कौंण ॥ ७६ ॥* 
दादूजी कहते हैं - हे जिज्ञासुजनों ! जैसे जल दूध में मिलकर दूध रूप होता है और जल में नमक मिलकर नमक जलरूप हो जाता है, ऐसे परमेश्वर की भक्ति करके भक्त परमेश्वर रूप हो जाते हैं । ऐसे संतों के समक्ष यह बेचारा मन क्या हठ करेगा? अर्थात् संतों के अतिरिक्त इस मन को कोई भी जीत नहीं पाते । सतगुरु से जिज्ञासु कहता है कि हे गुरुदेव ! दूध और जल, जल और नमक की तरह परमेश्वर में एक रूप होने वाले कौन हैं ? उत्तर - हे जिज्ञासु ! जो मन का हठ-पूर्वक निग्रह करते हैं, वे ही जिज्ञासु परमात्मा से मिलकर एक रूप हो जाते हैं ॥ ७६ ॥ 
यथा जलधिं अभ्येत्य तद्रूपं यान्ति सिन्धव: ।
जीवन्मुक्त: स्वरूपस्थ: तथैवाSप्नोति ब्रह्मताम् ॥ 
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*दादू राम नाम में पैस कर, राम नाम ल्यौ जाइ ।* 
*यहु इंकत त्रिय लोक में, अनत काहे को जाइ ॥ ७७ ॥* 
हे जिज्ञासुओ ! राम-नाम में "पैसकर" कहिए, आप अपने मन को स्थिर करो और राम-नाम का ही स्मरण करो । यही तीनों लोकों में एकान्त स्थान है और कहीं भी जाओगे, वहाँ सब जगह अन्तराय पड़ेगा । इसलिए राम-नाम को छोड़कर दूसरी जगह और दूसरे साधनों में कभी मत जाओ अथवा एकान्त कहिए सब मायावी प्रपंच का माया सहित एक व्यापक राम में ही विचार के द्वारा अन्त करो, यही एकान्त है ॥ ७७ ॥ 
गये भाजि वशिष्ठ जी, छोड़ यह ब्रह्माण्ड ।
रची कुटी संकल्प की, अन्तर हिरदै मांड ॥ 
दृष्टान्त - एक रोज वशिष्ठ ऋषि ने विचार किया कि एकान्त में भजन करें । तब आकाश में संकल्प की कुटिया बनाई । उसमें बैठ कर भजन करने लगे । जब वह भ्रमण करने को गए, पीछे से एक मुनि एकान्त स्थान देखता हुआ आया । उसे यह कुटिया मिल गई । वह उसमें बैठकर ध्यान करने लगा । वापिस आकर वशिष्ठ जी बोले :- यह कुटिया मेरी है, मैंने अपने संकल्प से बनाई है । दूसरा मुनि कहता है :- मेरी कुटिया है, मेरे संकल्प से मिली है । दोनों में वाद-विवाद हुआ । दोनों ब्रह्मा जी के पास पहुँचे । पिता को प्रणाम किया । पूर्वोक्त सब कह सुनाया । ब्रह्मा जी बोले :- पुत्रों ! एकान्त तो अपना हृदय है, उसमें राम-नाम की गुफा बना कर राम-नाम का स्मरण करो, यही त्रिलोकी में एकान्त है । दोनों को ज्ञान हो गया । पिता को नमस्कार करके चल पड़े ।
जगजीवन आंबेर में, भँवरे कुए जाइ ।
जन करत भरियो नहीं, गुरु दादू समझाइ ॥ 
दृष्टान्त - ब्रह्मऋषि दादूदयाल आमेर में विराजते थे । उनके शिष्य पण्डित जगजीवनराम जी भजन करने के लिए एकान्त में, जहाँ परियों का बाग है, उस बाग में सीढियों से कुएँ में उतर कर कुएँ की गुफा में जा बैठे । वर्षाकाल के दिन थे, सबके कुएँ पानी से भर गए । वह कुआँ नहीं भरा । कुएँ का मालिक कुएँ को देखकर मन में बहुत दुखी रहता था कि मेरा कुआँ पानी से नहीं भरता है, क्या बात है ? एक रोज उसने ऊपर से देखा तो अन्दर महाराज जगजीवनराम जी विराज रहे हैं । उस कुएँ के मालिक ने गुरुदेव के सामने आकर प्रणाम किया । बोला :- आपके शिष्य मेरे कुएँ में बैठे हैं । सबके कुएँ पानी से भर गए हैं, मेरा कुआँ खाली पड़ा है । गुरूदेव ने संतों को भेजा और बोले :-उनको बुलाओ । आते ही महाराज को प्रणाम किया । "रामजी, आप इस बिचारे गरीब के अन्तराय करने को आप कुएँ में क्यों जा बैठै?" "महाराज एकान्त देखकर भजन करने के लिए बैठा था ।" तभी ब्रह्मऋषि ने उपरोक्त साखी से उपदेश किया :- "जगजीवनजी राम-नाम की गुफा बना लो और राम नाम की लय लगाओ, यही एकान्त है त्रिलोकी में ।" ज्ञान के द्वारा राम के स्वरूप में ही माया और माया का कार्य प्रपंच, इन सबका अन्त होता है । इसी को एकान्त कहते हैं । जगजीवन जी ने गुरुदेव के चरणों में नत-मस्तक होकर वैसा ही किया ।
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*मध्य मार्ग*
*ना घर भला न वन भला, जहाँ नहीं निज नाँव ।* 
*दादू उनमनी मन रहै, भला तो सोई ठाँव ॥ ७८ ॥* 
हे जिज्ञासुओ ! "न तो घर ही भला है" अर्थात् प्रवृत्ति मार्ग, और "न वन ही भला है" अर्थात् साधुओं का निवृत्ति मार्ग, जहाँ कि अपने हृदय में प्रभु का नाम नहीं है । जहाँ यह मन विषयों से उदासीन होकर भगवत् भजन में एकाग्र रहता है, वही स्थान सर्वोत्तम है । अर्थात् जिज्ञासुओं को घर का अभिमान अर्थात् गृहस्थ आश्रम का अभिमान और साधुओं को वन का कहिए मैं तपस्पी हूँ, मैं साधु हूँ वन में रहता हूँ, यह अभिमान करना योग्य नहीं है । दोनों ही अभिमान छोड़कर प्रभु का स्मरण करें, तो उनके लिए वही स्थान ठीक है ॥ ७८ ॥ 
"कबीर' वैष्णव की कुटिया भली, टूटी घर की छान ।
ऊँचा मन्दिर जाल दे, जहाँ भक्ति न सारंगप्राण ॥
(क्रमशः)

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