गुरुवार, 16 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(१९-२१)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी

विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*दादू जब लग सुरति सिमटै नहीं, मन निश्चल नहीं होहि ।*
*तब लग पीव परसै नहीं, बड़ी विपति यहु मोहि ॥१९॥* 
सतगुरुदेव कहते हैं कि जब तक विरहीजनों की अन्त:करण की वृत्ति सब ओर से एकाग्र होकर, विरही मन केवल भगवत् से तद्रूप नहीं हो जावे, तब तक भगवत् दर्शनों के बिना दु:ख दूर नहीं होवेगा । तात्पर्य यह है कि विरहीजनों को जब तक देहादि की ओर रुदन की कहिए, रोने की अवस्था का किंचित् भी ज्ञान है, तब तक द्वैतभाव विद्यमान है । अत: जब प्रीतम और विरहनी का भिन्न-भिन्न भाव विलुप्त हो जावे, तब जानो कि विरहनी भक्त अपने प्रीतम में अभेद भाव से स्थित हो रही है ॥१९॥ 
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*ज्यूं अमली के चित अमल है, सूरे के संग्राम ।* 
*निर्धन के चित धन बसै, यों दादू के राम ॥२०॥* 
हे जिज्ञासुओ ! जैसे अफीमची के चित्त में अफीम का नशा करने की इच्छा रहती है और शूरवीर के मन में वीरता दिखाने की इच्छा रहती है और निर्धन कहिए, तृष्णायुक्त पुरुष के मन में धन की वासना रहती है । ऐसे ही सतगुरु महाराज कहते हैं कि विरहीजनों के मन में राम के मिलने की इच्छा बनी रहती है ॥२०॥ 
विवेच्यानि विचार्याणि, विचिन्त्यानि पुन: पुन: । 
कृपणस्य धनानीव, त्वन्नामानि भवन्तु मे ॥ 
कोउ अमली मग जात है, अमल बख्त भई आय । 
कोउ जन से ये पूछिया, मूंज नीर पी जाय ॥ 
दृष्टांत - एक अफीम खाने वाला मार्ग-मार्ग जा रहा था । अफीम खाने का समय हो गया । अफीम की डिब्बी घर भूल गया, तो उसके सारे अंग शिथिल पड़ गए, चाल कम हो गई । मुश्किल से एक गाँव में पहुँचा । विचार किया कि यहाँ कहीं से अफीम लेकर नशा करूँगा । गाँव में जब पहुँचा तब देखा कि एक पत्थर के ऊपर पीला-पीला पानी भरा है । वह देखकर बड़ा राजी हुआ और वहाँ चौपाल पर बैठे पुरुषों से पूछा भाई ! यह तिजोरा है(तिजोरा का अर्थ है पोस्त के डोडे)? वे लोग जान गए कि यह अफीम खाने वाला है । इसके पास अफीम नहीं है । हम यह कहेंगे कि यह मूंज का पानी है तो यह उदास हो जाएगा । ऐसा विचार कर वे लोग बोले :- हाँ, तिजोरा बना है । "आप लोग पी लिया ?" हाँ, हम सबने पी लिया । यह बचा हुआ है । वह बोला "मैं पीलूं क्या?" "पीलो ।" उसने सब पानी पी लिया पत्थर के गड्ढों में से और तीन खखारे किए । इतने में नशा चढ़ गया । ऐसे ही दृष्टांत में राम के भक्त, राम के स्मरण से ही तृप्त होते हैं ।
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*ज्यूं चातक के चित जल बसैं, ज्यूं पानी बिन मीन ।* 
*जैसे चंद चकोर है, अैसे दादू हरि सौं कीन ॥२१॥* 


हे जिज्ञासुओं ! जैसे चातक कहिए पपैया के मन में स्वाति बून्द का प्रेम है और जैसे मछली जल के बिना नहीं जी सकती है क्योंकि मुख्य प्रीति मछली की जल से होती है और जैसे चकोर पक्षी के मन में चन्द्रमा की प्रीति बसती है, वैसे ही सतगुरु महाराज कहते हैं कि विरहीजन भक्त की राम से प्रीति रहती है ॥२१॥ 
(क्रमशः)

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