*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*ज्यूं कुंजर के मन वन बसै, अनल पंखी आकास ।*
*यूं दादू का मन राम सौं, ज्यूं वैरागी वनखंड वास ॥२२॥*
जैसे हाथी के मन में वन की प्रीति बसती है और शार्दूल पक्षी के मन में आकाश की प्रीति बसती है । इसी प्रकार सतगुरु महाराज कहते हैं कि हम विरहीजनों का मन तो एक राम में बसता है, जैसे वैराग्यवान् पुरुष के मन में वन बसता है ॥२२॥
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*भँवरा लुब्धी बास का, मोह्या नाद कुरंग ।*
*यों दादू का मन राम सौं, ज्यों दीपक ज्योति पंतग ॥२३॥*
जैसे भँवरा पुष्प की सुगन्धि का लोभी होता है और मृग जैसे सारंग राग का प्रेमी होता है और जैसे पतंग दीपक-ज्योति का प्रेमी होता है । ऐसे ही हम विरहीजनों का मन तो केवल राम से ही स्नेह करता है ॥२३॥
ज्यों मृग मोह्या नाद सौं, दादूर ज्यों जल संग ।
त्यों साधु की रुचि राम सौ, ज्यों दीपक पड़त पतंग ॥
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*श्रवणा राते नाद सौं, नैनां राते रूप ।*
*जिभ्या राती स्वाद सौं, त्यों दादू एक अनूप ॥२४॥*
जैसे संसारीजन भिन्न-भिन्न इन्द्रियों की रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न विषयों में प्रवृत्त होते हैं, वैसे ही विरहीजनों को भी समस्त माया पदार्थों से सुरति समेट कर केवल भगवद्-भजन में ही एकाग्र रहना चाहिए ॥२४॥
(क्रमशः)
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