*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*दर्शन कारण विरहनी, वैरागिन होवै ।*
*दादू विरह बियोगिनी, हरि मारग जोवै ॥१६॥*
सतगुरुदेव कहते हैं कि विरहीजन, भगवत् दर्शनों के लिये संसार से वैराग्य लेते हैं और भगवत् दर्शनों के बिना विरह से अति व्याकुल होकर, ईश्वर से मिलने की प्रतीक्षा करते हैं ॥१६॥
क्या करुँ बैकुन्ठ का, कल्प-वृक्ष की छाँह ।
"हेतम" ढाक सुहावणां, जहाँ सज्जन गहि बाँह ॥
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*विरह उपदेश*
*अति गति आतुर मिलन को, जैसे जल बिन मीन ।*
*सो देखे दीदार को, दादू आतम लीन ॥१७॥*
हे जिज्ञासुओं ! जैसे जल के बिना मछली व्याकुल हो जाती है, उसी प्रकार भक्तजन, भगवत् के वियोग में व्याकुल रहते हैं । जो विरहीजन माया की तृष्णा को विसार कर अपनी आत्मा को परमेश्वर में लीन करते हैं, वही भक्तजन प्रभु का साक्षात्कार करेंगे ॥१७॥
नीर बिन मीनी दुखी, क्षीर बिनु शिशु जैसे ।
पीर की औषधि बिन, कैसे रह्यो जात है ॥
चातग ज्यूं स्वाति बूंद, चन्द को चकोर जैसे ।
चन्दन की चाह कर, सर्प अकुलात है ।
निर्धन ज्यूं धन चाहे, कामनी को कन्त जैसे ।
ऐसी जाके चाह ताहि, कछु न सुहात है ।
प्रेम को प्रवाह ऐसा, प्रेम तहाँ नेम कैसो ।
सुन्दर कहत यह, प्रेम ही की बात है ॥
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*राम बिछोही विरहनी, फिरि मिलन न पावै ।*
*राम बिछोही विरहनी, फिरि मिलन न पावै ।*
*दादू तलपै मीन ज्यूं, तुझ दया न आवै ॥१८॥*
सतगुरुदेव कहते हैं कि विरहीजन परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हे राम ! जो आपने विरहजन भक्तों को भुला दिया तो फिर विरहीजन अपने बल के द्वारा आपसे मिल नहीं सकेंगे । इसलिए विरहीजन तो आपके दर्शनों के वियोग में मछली की भाँति तड़फते रहते हैं(जैसे जल के बिना मछली) । हे भक्त-वत्सल ! हे दीनों पर दया करने वाले ! क्या आपको अपने विरहीजनों पर इतनी भी दया नहीं आती कि उन्हें अपना दर्शन देकर विरह का दु:ख दूर करें ॥१८॥
बिछुडियाँ विग्रह घणा, भू अंतरा पराइ ।
नदी बिछुटा बाहुलण, औसर कहीं मिलाइ ॥
कर्ता कृपणता गही, दर्शन बिन दुख दीन्ह ।
माता पिता यों ना करै, ज्यूं हरि हम सूं कीन्ह ॥
कहियो जाइ सलाम हमारी राम को,
नैन रहे झर लाइ तुम्हारे नाम को ।
कमल गया कुमलाय कली भी जायसी,
अरे हां बाजींद, इस बाड़ी में भँवरा फेर न आइसी ॥
(क्रमशः)
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