रविवार, 30 सितंबर 2012

= विरह का अँग ३ =(११२-४)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरह उपदेश*
*दादू तो पीव पाइये, कश्मल है सो जाइ ।*
*निर्मल मन कर आरसी, मूरति मांहि लखाइ ॥११२॥* 
हे जिज्ञासुओं ! जैसे दर्पण(शीशा) स्वच्छ हो तो, उसमें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाई देता है । इस प्रकार जिज्ञासुजन अपने अन्त:करण के मल विक्षेप को धोकर आरसी रूपी मन को निष्पाप करके स्वस्वरूप का दर्शन करे ॥११२॥ 
मनस्तु सुखदु:खानां, कारणं विधिबुद्धिन: । 
निर्मले चकृते तस्मिन् सर्वभवति निर्मलम् ॥ 
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*दादू तो पीव पाइये, कर मंझे विलाप ।* 
*सुनि है कबहुँ चित्त धरि, परगट होवै आप ॥११३॥* 
हे जिज्ञासुजनों ! परमात्म देव तुम्हारे हृदय में ही विद्यमान है । उनका अपने आप में ही स्वआत्मरूप से अनुभव करो । किस रीति से ? सो बताते हैं कि अन्तर्गत कहिए, अन्त:करण में ही परमेश्वर का विलाप करिये ॥११३॥
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*दादू तो पीव पाइये, कर सांई की सेव ।*
*काया मांहि लखाइसी, घट ही भीतर देव ॥११४॥* 
हे जिज्ञासुजनों ! भीतर ईश्वर के चिंतन रूप परमेश्वर की सेवा करिये, क्योंकि परम दयालु परमेश्वर सर्वत्र व्यापक हैं । वे अपने विरही भक्तों के विलाप को सुनकर उनकी सेवा को स्वीकार करके परमेश्वर कभी भी प्रकट हो सकते हैं । इसलिए सदैव परमेश्वर की भक्ति में ही लीन रहो ॥११४॥
(क्रमशः)

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