॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरह उपदेश*
*दादू तो पीव पाइये, कश्मल है सो जाइ ।*
*निर्मल मन कर आरसी, मूरति मांहि लखाइ ॥११२॥*
हे जिज्ञासुओं ! जैसे दर्पण(शीशा) स्वच्छ हो तो, उसमें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाई देता है । इस प्रकार जिज्ञासुजन अपने अन्त:करण के मल विक्षेप को धोकर आरसी रूपी मन को निष्पाप करके स्वस्वरूप का दर्शन करे ॥११२॥
मनस्तु सुखदु:खानां, कारणं विधिबुद्धिन: ।
निर्मले चकृते तस्मिन् सर्वभवति निर्मलम् ॥
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*दादू तो पीव पाइये, कर मंझे विलाप ।*
*सुनि है कबहुँ चित्त धरि, परगट होवै आप ॥११३॥*
हे जिज्ञासुजनों ! परमात्म देव तुम्हारे हृदय में ही विद्यमान है । उनका अपने आप में ही स्वआत्मरूप से अनुभव करो । किस रीति से ? सो बताते हैं कि अन्तर्गत कहिए, अन्त:करण में ही परमेश्वर का विलाप करिये ॥११३॥
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*दादू तो पीव पाइये, कर सांई की सेव ।*
*काया मांहि लखाइसी, घट ही भीतर देव ॥११४॥*
हे जिज्ञासुजनों ! भीतर ईश्वर के चिंतन रूप परमेश्वर की सेवा करिये, क्योंकि परम दयालु परमेश्वर सर्वत्र व्यापक हैं । वे अपने विरही भक्तों के विलाप को सुनकर उनकी सेवा को स्वीकार करके परमेश्वर कभी भी प्रकट हो सकते हैं । इसलिए सदैव परमेश्वर की भक्ति में ही लीन रहो ॥११४॥
(क्रमशः)
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