॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*दादू तो पीव पाइये, भावै प्रीति लगाइ ।*
*हेजैं हरि बुलाये, मोहन मंदिर आइ ॥११५॥*
हे जिज्ञासुजनों ! श्रद्धापूर्वक परमेश्वर में प्रीति लगाओ और मन, सुरति को एकाग्र करने से अपने प्रीतम प्यारे के दर्शन होंगे । जो सब पापों को हरने वाले परमेश्वर स्वरूप हरि हैं, उनका "हेजैं" कहिए, विरह-प्रेम की व्याकुलता से पुकारिये । हे मोहन ! मेरे हृदय रूपी मंदिर में प्रकट हो ॥११५॥*
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*विरह उपजन*
*दादू जाके जैसी पीड़ है, सो तैसी करै पुकार ।*
*को सूक्ष्म, को सहज में, को मृतक तिहिं बार ॥११६॥*
हे जिज्ञासुओं ! जिसके हृदय में जैसी विरह की पीड़ा होती है, वह वैसी ही पुकार करता है । जो कनिष्ठ श्रेणी के विरहीजन हैं, वे तो अल्प समय में भगवान् को पुकारते हैं और मध्यम श्रेणी के विरहीजन सहजभाव से पुकारते हैं और उत्तम श्रेणी के विरहीजन तो क्षण भर भी ईश्वर का वियोग नहीं सह सकते, अपितु पुकारते ही रहते हैं । उत्तम विरहीजनों का परमेश्वर के वियोग में उसी क्षण प्राण-पिण्ड का वियोग हो जाता है ॥११६॥
उपजणि पंच प्रकार, जीव जग में जिज्ञासी ।
जाके जैसी प्रीति लगन तैसो फल पासी ॥
भँवरी बिच्छू सर्प मकोड़ी कीड़ी लागै ।
घटि बधि दर्द सरीर राम रसना जपि जागै ॥
पुनि को सूक्ष्म को सहज में को मृतक तिहिं बार जू ।
कहै बालकराम ऐसी दसा सौ देखै दीदार जू ॥
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*विरह लक्षण*
*दर्द हि बूझै दर्दवंद, जाके दिल होवे ।*
*क्या जाणै दादू दर्द की, नींद भरि सोवे ॥११७॥*
हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर के विरहीजन ही भक्तों के असह्य दु:ख को समझते हैं । शेष जो संसारीजन मोह-निद्रा में मग्न हैं, वे परमेश्वर के भक्तों के विरह-दु:ख को क्या समझे ? तात्पर्य यह है कि निद्रा में संसारीजनों को ईश्वर को विरहभाव प्राप्त नहीं होता है, जिससे संसारीजन ईश्वर-विमुख हुए ही भ्रमते हैं ॥११७॥
"विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जन-परिश्रमम् ।
वन्ध्या किं विजानीयात् शिशु-प्रसव वेदनाम ॥"
"जाकै पैर न फटी बिवाई ।
वह क्या जाने पीर पराई ॥"
(क्रमशः)
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