मंगलवार, 4 सितंबर 2012

= विरह का अँग ३ =(६१-३)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =* 
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*विरही विरह लक्षण*
*जब लग सीस न सौंपिये, जब लग इश्क न होइ ।*
*आशिक मरणैं ना डरै, पिया पियाला सोइ ॥६१॥* 
टीका - सतगुरु कहते हैं कि जब तक विरहीजन अपना "अहम्ता' ममता रूपी सिर परमेश्वर को अर्पित नहीं कर देवें, तब तक परमेश्वर में पूर्ण प्रेम नहीं होता है । क्योंकि परमेश्वर के प्रेम का प्याला वही विरहीजन पी सकते हैं, जिनको मरने का कुछ भय नहीं हैं ॥६१॥ 
प्रीति करै ऐसी करै, हेतम की सी रीति । 
गलो बँधायो पशु जिमि, पारब्रह्म सौं प्रीति ॥ 
सांई सींत न पाइये, बातों मिलै न कोइ । 
रज्जब सौदा राम सूँ, शिर बिन कदे न होइ ॥ 
(सींत न पाइये = मुफ्त में नहीं मिलता)
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*विरह पतिव्रत*
*तैं डीनोंई सभु, जे डीये दीदार के ।*
*उंजे लहदी अभु, पसाई दो पाण के ॥६२॥* 
टीका - हे परमेश्वर ! हम विरहीजन आप द्वारा सब कुछ ही दिया मान लेंगे, अगर आपने हमें अपना दीदार दे दिया, तब फिर कुछ बाकी देने को नहीं रह जायेगा । हे प्रभु! जैसे प्यास "अभु' नाम जल के प्राप्त होने से ही शान्ति होती है । ऐसे ही आप-अपना दर्शन दो, तो हम विरही लोगों की प्यास नाम दर्शन की इच्छा पूरी होवे ॥६२॥ 
(शब्दार्थ :- डिनोई = दिया । सभु : सब कुछ । 
दीदार = दर्शन । उंजे = प्यास । लहदी = मिटना । 
अभु = जल । पसाइ = देखें । पाण के = आपके दर्शन ।)
छप्पय :-
दर्शन देहि जु आप सकल सुख दीन्हों मोही । 
अठसिधि नव निधि कहा पिपासु तृप्त जल होही ॥ 
सब सुख आनन्द मूर नाम तुम्हारो करतारा ।
मल विक्षेप कर दूर भौजल हि तारणहार ॥ 
अन्तर्मन हरि भक्ति जागई रोम रोम में भयो हर्ष । 
आप स्वयं ही प्रकट होके हम को तुम देहु हरि दर्श ॥ 
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*बिचौं सभो डूरि कर, अंदर बिया न पाइ ।*
*दादू रत्ता हिकदा, मन मोहब्बत लाइ ॥६३॥* 
टीका - सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे परमेश्वर ! आपके और हम विरहीजनों के बीच में, जो विषय-विकार आदि अन्तराय हैं, उन्हें दूर करिये और हमारे से दूर न होइये । हे प्रभु ! हम विरहीजनों के हृदय में ऐसी भक्ति पैदा करिये कि हम आप में ही रत रहें ॥६३॥ 
शब्दार्थ :- सभो= समस्त(विषय विकार आदि) । 
बिया = बिछोह । हिकदा = एक सूं ।
(क्रमशः)

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