सोमवार, 3 सितंबर 2012

= विरह का अँग ३ =(५८/६०)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= विरह का अंग - ३ =*
.
*रत्ती रब्ब ना बीसरै, मरै संभाल संभाल ।*
*दादू सुहदा थीर है,आसिक अल्लह नाल ॥५८॥* 
टीका - हम विरहीजन एक क्षण भर भी परमात्मा को नहीं भूलते हैं और उसी का स्मरण कर-करके, झूर-झूर कर कहिए, तड़फ-तड़फ कर मर जाते हैं । इस रीति से विरहीजनों का सांसारिक पदार्था से उदासीन मन केवल भगवान् में ही स्थिर होता है ॥५८॥ 
चितै चित्त उरझात हूँ, सोच सोच पछतात । 
भावन्ता के रूप महिं, डूब डूब मन जात ॥ 
.
*दादू आसिक रब्ब दा, सिर भी डेवै लाहि ।*
*अल्लह कारण आपको, साड़े अंदर भाहि ॥५९॥* 
टीका - परमेश्वर के विरहीजन, अपना सिर भी उतार कर दे देवें और भगवत् दर्शनों के लिए, अपने आप के स्थूल शरीर को विरह-अग्नि में भी जला देवें, तो भी उनको ईश्वर साक्षात्कार किए बिना शान्ति नहीं मिलती है । इन साखियों में "सिर" कहिए, आपा अहंकार अविद्याकृत का भी ग्रहण है ॥५९॥ 
"समन" शंकर बावरो, जिन दियो अर्धंग ।
भावन्ता के कारणे, बलि कीजे सर्वंग ॥ 
शिव जी ने अर्ध गंग गिरजा को दे दिया । राजा बलि ने अपना सारा अंग भगवान् बामन को अर्पण कर दिया ।
.
*भोरे भोरे तन करै, वंडे करि कुरवाण ।*
*मिट्ठा कौड़ा ना लगै, दादू तो हूं साण ॥६०॥* 
टीका - हे परमेश्वर ! हम विरहीजन अपने तन के टुकड़े-टुकड़े कर "वंडे" कहिए, बाँटकर, पीस कर, हे ईश्वर ! आपके ऊपर उड़ा देवें तो भी विरहीजन को आप "मिट्ठा" कहिए, आपका भक्ति-रस हमें सुखरूप ही लगेगा । ऐसे विरहीजन अपने आपको कसौटी पर कसने पर भी अगर आप प्राप्त हो जाओ, फिर भी वह सुगमता से ही प्राप्त हुआ मानेंगे और आपके फिर सदैव साथ रहेंगे । आपके भक्ति-रस से कभी अरुचि नहीं होवेगी, तब ही हम विरहीजन अपनी कसौटी पर पूरे उतरेंगे ॥६०॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें