शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१२४-६)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =* 
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*जिहि लागी सो जागि है, बेध्या करै पुकार ।* 
*दादू पिंजर पीड़ है, सालै बारम्बार ॥१२४॥* 
*विरही सिसकै पीड़ सौं, ज्यूं घायल रण माहिं ।*
*प्रीतम मारे बाण भर, दादू जीवै नाहिं ॥१२५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! प्रीतम प्यारे परमेश्वर ने "बाण भर" नाम विरह-भाव रूप मंत्र-तंत्र आदि से सिद्ध करके, विरहीजनों को विरह के बाण मारे हैं, जिससे विरहीजन "जीवै" नहीं अर्थात् संसार विषयों में पुन: आसक्त नहीं होते हैं और "जागि" कहिए, अविद्या-निद्रा से मुक्त होकर "बेध्या" विरह दु:ख से व्याकुल हुए, केवल प्यारे प्रीतम को ही पुकारते हैं । जैसे युद्धक्षेत्र में कोई शूरवीर घायल हो जाये, तो सद्गति के लिए सिसकता है, वैसे ही विरहीजन अपने प्रियतम स्वस्वरूप में अभेद होने के लिए अति व्याकुल हैं ॥१२४-५॥ 
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*दादू विरह जगावे दर्द को, दर्द जगावे जीव ।* 
*जीव जगावे सुरति को, पंच पुकारैं पीव ॥१२६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर के दर्शनों के लिए जिन भक्तों को व्याकुलता हो रही है, उनको परमेश्वर का क्षणभर का वियोग भी असह्य प्रतीत होता है । जिससे जीवात्मा माया-प्रपंच की यथार्थता का बोध प्राप्त करके स्वस्वरूप निश्चय में प्रवृत्त होता है और पुन: स्वस्वरूप बोध होने पर जीव की सूक्ष्म संस्काररूप सुरति माया-आवरण को छोड़कर स्वस्वरूप में स्थिर होती है । जिससे चतुर्थ अवस्था में विरहीजनों का पंच तत्वों का बना हुआ समस्त शरीर पीव-पीव पुकारता है अर्थात् रोम-रोम से अन्र्तध्वनि होने लगती है । पंच शब्द से पाँच ज्ञानेन्द्रियों का भी तात्पर्य सम्भव है अर्थात् पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ ब्रह्माकार होकर पीव को पुकारती हैं ॥१२६॥ 
पंच इन्द्री पीव पीव करै, छठा जु सुमिरै मन । 
याही सुरति कबीर की, पाया राम रतन ॥
(क्रमशः)

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