रविवार, 7 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१२७-९)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= विरह का अंग - ३ =* 
*सहजैं मनसा मन सधै, सहजैं पवना सोइ ।* 
*सहजैं पंचों थिर भये, जे चोट विरह की होइ ॥१२७॥* 
टीका - यदि विरह का सच्चा दु:ख होवे तो विरहीजनों की सहजावस्था होने पर मन, बुद्धि, प्राण आदिक पवन तथा पाँचों ज्ञान इन्द्रियाँ स्वस्वरूप में स्थिर हो जाती हैं ॥१२७॥
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*मारणहारा रहि गया, जिहिं लागी सो नांहि ।* 
*कबहूँ सो दिन होइगा, यहु मेरे मन मांहि ॥१२८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं! विरहीजन कहते हैं कि जब प्यारे प्रीतम ने विरह रूपी बाण मारे, तो लगने वाले के केवल परमेश्वर का ही फिर स्मरण रहता है और जिनको ये विरह-बाण लगते हैं, उनका आपा-अहंकार आदि परिछन्न भाव समाप्त हो जाता है अर्थात् जीव और ब्रह्म का जो द्वैतभाव था, वह सब दूर हो जाता है । इसलिए हे प्रियतम ! वह दिन कब आवेगा, जब यह पूर्वोक्त आनन्द भाव मुझ विरहिनी के हृदय में व्याप्त होगा ॥१२८॥ 
*प्रीतम मारे प्रेम सौं, तिन को क्या मारे ।* 
*दादू जारे विरह के, तिन को क्या जारे ॥१२९॥* 
टीका - हे प्यारे प्रीतम ! विरहीजनों को आपने अपने प्रेम रूपी बाण मारे है, अर्थात् जिनके अविद्या आदिक माया आवरण दूर किए हैं, उनको आप अपने दर्शनों के वियोग में क्यों तड़फाते हो ? हे परमेश्वर ! जो आपकी विरह अग्नि में जले हुए हैं, उन्हें अब अपने दर्शनों के बिना क्यों जलाते हों ? अथवा जिन विरहीजनों के गुण विकार, विरह-भाव से ही जल गए हैं, वे उन गुण विकारों को मारने के लिये और क्या उपाय करेंगे ? जो विरहीजन परमेश्वर के विरह दु:ख से मरे हुए हैं, उन्हें और काल आदिक क्या मारेंगे ? इसी रीति से "दादू जारे विरह के"- इस तुक का भी विकल्पार्थ जानना चाहिए, फिर उनको कोई क्या जलायेगा ?१२९॥ 
विरह पावक उर बसै, नखशिख जारै देह । 
रज्जब ऊपर रहम कर, बरषहु मोहन मेह ॥ 
(क्रमशः)

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