*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= अथ परिचय का अंग - ४ =*
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पूर्व प्रकरण में प्रतिपादित "गगन गरजि जल थल भरै, दादू जय जयकार" इस सूत्र के व्याख्यान स्वरूप अब परिचय के अंग का निरूपण करते हैं । प्रत्यक्ष प्राप्ति को परिचय कहते हैं । परिचय होने के जो - जो उत्तम साधन हैं और परिचय प्राप्ति वाले जो संत पुरुष हुए हैं, उनकी भिन्न - भिन्न स्थिति का प्रस्तुत अंग में प्रतिपादन करेंगे । प्रथम हरि, गुरु, संतों को उनकी प्राप्ति के लिए भक्ति - भाव से विनती के सहित, हरि गुरु सन्तों की वन्दना करते हैं ।
*मंगलाचरण
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वंदनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥*
टीका - हरि, गुरु, संतों को हमारी बारंबार वन्दना है, क्योंकि हरि, गुरु, संतों की कृपा से, हम जिज्ञासु जन "पारं" कहिए, वियोग - जन्य दुःख से परे सुखरूप पीव को "गतः" कहिए, प्राप्त होते हैं । अब प्रथम परमेश्वर प्राप्ति कह कर पुनः जिज्ञासुजनों के ब्रह्मभाव की अवस्था का प्रतिपादन करते हैं ॥१॥
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*दादू निरंतर पीव पाइया, तहँ पंखी उनमनि जाइ ।*
*सप्तों मंडल भेदिया, अष्टें रह्या समाइ ॥२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! पंखी कहिए, भक्ति - ज्ञानादिक पंखों वाला, पक्षीरूप जीवात्मा, उनमनी नाम ऊँची दशा अर्थात् सर्व मायिक पदार्थों से उदास होकर ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है । अन्तराय रहित होकर पीव का प्रत्यक्ष अनुभव करता है । अब ब्राह्मी अवस्था का वर्णन करते हैं - "सप्तों मंडल भेदिया" अर्थात् स्वर्ग आदि सातों मण्डल = भवन अथवा सप्त धातु रस, रक्त, मांस, भेद, मांस, अस्थि और रेतस्(रज - वीर्य) रूप काया वा माया के सप्त आवरण(शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण, बुद्धि, अज्ञान, जीव) एवं सप्त चेतन(शुद्ध, ईश्वर, जीव, परमात्मा, प्रमाण, प्रेम, फल) अथवा सप्त आवरण(माया, अहंकार, पंचभूत, अज्ञान, आवरण, परोक्ष भ्रान्ति, शोकनाश), सात चक्र अथवा चतुष्टय् अन्तःकरण और तीन गुण, ये सात, सप्त ज्ञान की अवस्था, इन सब को "भेदिया" कहिए पार करके जिज्ञासुजन अष्टैं स्वस्वरूप में समा कर रहता है, अभेद होता है अर्थात् अधिष्ठान ब्रह्म में स्थिर होता है ॥२॥
समस्तेषु वस्तुष्पनुस्यूतमेक
समस्तानि वस्तूनि यन्न स्पृशन्ति ।
वियद्वत् सदाशुद्ध सच्चित्स्वरूपः
स नित्योपलब्धस्वरूपोऽहमात्मा ॥ - श्रुति
समस्त वस्तुओं में परिपूर्ण एक ब्रह्म है, जिसको समस्त वस्तुएँ स्पर्श भी नहीं कर सकतीं, किन्तु आकाशवत् वह ब्रह्म सत् चित्, आनन्द स्वभाव वाला नित्य प्राप्त रहता है, वहीं मैं हूँ ।
सप्त धातु: रसं रक्तं च मासं च मेदो मज्जास्थिरेतसः ।
सप्त धातुरिदं प्रोक्तं सर्वदेहसमाश्रितम् ॥
मांस, रक्त, त्वक, रोम जू, जननी की ये जान ।
नाडी, बीरज, अस्थियाँ, सप्त धातु मन मान ॥
साध खग मग शून्य में, दोऊ दिस गोपाल ।
जन रज्जब देखै जगत, चलै कौन यहु चाल ॥
दादू ज्योति चमके तिरवरे, दीपक देखे लोय ।
चंद सूर का चाँदना, पगार छलावा होय ॥
माया के आवण सात योगी इससे आगे बढ़ता है -
माया अद्भुतता लखत, अचरज सब को होय ।
बाजीगर का खेल लख, चकित भये सब कोय ॥
बाग सप्त गह महल के, लखत रहे सब कोइ ।
बिन देखे अष्टम गया, भूप बना फिर सोइ ॥
दृष्टान्त - एक राजा था; उसके कोई औरस पुत्र नहीं था । अतः उसने सोचा कि मेरे मरने के बाद यदि कोई अयोग्य व्यक्ति गद्दी पर बैठ जाएगा, तो वह मेरी प्रजा पर अन्याय करेगा और राज - कार्य भी ठीक तरह से नहीं चलायेगा । अतः मैं जीते - जी ही किसी बुद्धिमान् व योग्य व्यक्ति को अपना राजपाट सँभला कर भगवद् भजन में लग जाऊँ ।
राजा ने बाग में एक बहुत बड़ा अष्ट मंजिला महल बनवाया, जिसके नीचे की सात मंजिलों में अनेक प्रकार की अद्भुत व मनोहारी वस्तुएँ, कलाकृतियाँ एवं मूर्तियाँ आदि रखवाईं, जिनको देखकर दर्शक का मन मुग्ध हो जाता और उन पर से दृष्टि हटाने का मन ही नहीं करता ।
आठवीं मंजिल में अपना सिंहासन लगवाया और उसी के पास आगन्तुक महाशय के लिये एक और राजसिंहासन रखवाया । राजा ने घोषणा करवाई कि अमुक दिन प्रातः ८ बजे से दोपहर १२ बजे तक सातों मंजिल पार कर अष्टम् खण्ड में जो व्यक्ति मेरे पास पहुँच जायेगा, उसे मैं अपना राज्य सौंप दूँगा ।
आठवीं मंजिल में अपना सिंहासन लगवाया और उसी के पास आगन्तुक महाशय के लिये एक और राजसिंहासन रखवाया । राजा ने घोषणा करवाई कि अमुक दिन प्रातः ८ बजे से दोपहर १२ बजे तक सातों मंजिल पार कर अष्टम् खण्ड में जो व्यक्ति मेरे पास पहुँच जायेगा, उसे मैं अपना राज्य सौंप दूँगा ।
नियत तिथि को राज्य चाहने वालों की बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गयी । वे सब ८ बजे महल में प्रविष्ट होकर १२ बजे तक राजा के पास आठवीं मंजिल में पहुँचना चाहते थे, किन्तु महल की वस्तुएँ देखने में ही उनका समय पूरा हो गया, सप्तम खण्ड में भी कोई नहीं पहुँच सका ।
एक व्यक्ति ने सोचा कि मैं इन सात मंजिलों की वस्तुओं को देखने में अपना समय नष्ट क्यों करूँ, वह ठीक १२ बजे आठवीं मंजिल पर राजा के पास जा पहुँचा और राजा को सादर प्रणाम किया । राजा ने पूछा - तुमने महल के सातों खण्डों की कलाकृतियों को देखा ?
उसने उत्तर दिया - महाराज, जब आप अपना राज्य ही मुझे दे रहे हो तो इन्हें बाद में देखता रहहूँगा । राजा ने उसे बुद्धिमान समझ कर राजसिंहासन पर बैठाकर राज्य भार सौंप दियाऔर स्वयं ईश्वरोपासना में लग गया । ऐसे ही जो संसार रूपी महल के इन मायावी पदार्थों व विषयों में नहीं भटकता वही अन्तिम लक्ष्य पर पहुँचकर ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है ।
उसने उत्तर दिया - महाराज, जब आप अपना राज्य ही मुझे दे रहे हो तो इन्हें बाद में देखता रहहूँगा । राजा ने उसे बुद्धिमान समझ कर राजसिंहासन पर बैठाकर राज्य भार सौंप दियाऔर स्वयं ईश्वरोपासना में लग गया । ऐसे ही जो संसार रूपी महल के इन मायावी पदार्थों व विषयों में नहीं भटकता वही अन्तिम लक्ष्य पर पहुँचकर ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है ।
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*परमात्मा का स्वरूप*
*दादू निरंतर पीव पाइया, तहँ निगम न पहुँचे वेद ।*
*तेज स्वरूपी पीव बसे, कोई बिरला जानैं भेद ॥३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! पीव का सदा अखण्ड एकरस तेज स्वरूप है, जहाँ पर वेद भी शक्ति वृत्ति से नहीं पहुँचता है । अर्थात् स्मृति, धर्मशास्त्र उन्हीं वस्तुओं का निरूपण करते हैं, जिनमें गुण, क्रिया, जाति सम्बन्ध होता है । शुद्ध चेतन गुण, क्रिया, जाति और सम्बन्ध इनसे रहित है । स्मृतिस्त्र एवं धर्मोपदेशक वेद उनके विषय में कुछ नहीं बता सकते । वहाँ उनकी गम नहीं है, वह उनका विषय नहीं है, किन्तु बिरले संत पुरुष ही परमेश्वर के मर्म स्वरूप को अनुभव द्वारा जानते हैं ॥३॥
कबीर ज्यों नैनों में पूतली, त्यों खालिक घट मांहिं ।
मूरख लोग न जानहीं, बाहिर ढूंढन जाहिं ॥
(क्रमशः)
(क्रमशः)
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