सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१५७-९)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरह विनती* 
*आज्ञा अपरंपार की, बसि अंबर भरतार ।* 
*हरे पटंबर पहरि करि, धरती करै सिंगार ॥१५७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मर्षि दादू दयाल जी महाराज कहते हैं हे इन्द्र महाराज ! आपको अपरंपार परमात्मा की आज्ञा हैं कि इस प्रजा का पालन करो । क्योंकि आप इस पृथ्वी के भर्तार हो(पति हो) । इस पृथ्वी के जो वस्त्र हैं, वे आपके अधीन हैं । वे जब आप पहनाओगे, तब पहनेगी । वस्त्र क्या हैं ? सो बताते हैं ।
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*वसुधा सब फूलै फलै, पृथ्वी अनंत अपार ।* 
*गगन गर्ज जल थल भरै, दादू जै जै कार ॥१५८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! वसुधा कहिए पृथ्वी अनन्त अपार है वनस्पतियों के सहित । और यह पृथ्वी नाना प्रकार के फल - फूल इत्यादि हरे वस्त्र धारण करके समस्त अंगों पहाड़, झील आदि सहित अपना श्रृंगार करती है । इसी से प्रजा में आनंद होता है । इसलिए हे इन्द्र महाराज ! आप आकाश में मेघों द्वारा जल - वर्षा करके पृथ्वी को जल से पूर्ण कर दो ।
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*काला मुँह कर काल का, सांई सदा सुकाल ।*
*मेघ तुम्हारे घर घणां, बरसहु दीनदयाल ॥१५९॥* 
इति विरह का अंग सम्पूर्ण ॥ अंग ३ ॥ साखी १५९ ॥ 
टीका - हे इन्द्र महाराज ! आपके घर में अनेक मेघमाला हैं, इसीलिए आप सदा सुकाल रूप हो और इस दीन प्रजा के आप मालिक हो । अब आप इस काल का कहिए वर्षा बिना जो काल पड़ रहा है, इसका काला मुँह करो । और दयालु होकर वर्षा करो । 
सोरठा :-
आँधी गाँव हि माहिं, रहे जो दादूदास जी । 
वर्षा वर्षी नांहि, कर विनती वर्षाइयो ॥ 
द्रष्टान्त :- एक समय आनन्दकन्द श्री दादू दयाल महाराज ने आंधी ग्राम में अपने अनन्य भक्त पूरणदास जी ताराचंद जी महरवाल के चातुर्मास किया । उस वर्ष आंधी ग्राम में भयंकर दुष्काल पड़ा । ग्रामवासी आंधी ग्राम को त्यागकर मालवा प्रदेश में जाने लगे । जब ग्रामवासियों को महाप्रभु श्री दादूदयाल ने ग्राम त्याग कर जाने का कारण पूछा तो उन्होंने अन्न - पानी - चारे का अभाव व अकाल बतलाया । तब स्वामी जी ने उक्त तीन साखियों से इन्द्रदेव को वर्षा वर्षाने की आज्ञा दी । घनघोर घटाएँ घिरीं और इतनी जबर्दस्त वर्षा हुई कि सब ताल-तलैया पानी से लबालब भर गये और अकाल सुकाल में परिवर्तित हो गया । पृथ्वी जल से पूर्ण हो गई । कु एँ, तालाब, बावड़ी पानी से पूर्ण भर गए और रामजी महाराज की दया से जय - जयकार हो गया । ये तीनों मंत्र अनुष्ठान(साधना) रूप हैं, वर्षा के लिए । 
हे जिज्ञासुओं ! द्रष्टान्त में यह भाव है कि विरहीजन भक्त, भगवान् से विरह सहित विनती करते हैं कि हे अपरम्पार ! अपनी आज्ञा अनुसार आप हमारे भरतार(मालिक) हैं । हमारे हृदय आकाश में निवास करो । धरती जो हमारी बुद्धि है सो गुरु - आज्ञा, हरि - स्मरण आदिक वस्त्रों को पहन कर, शरीर रूपी वसुधा, अनन्त आपार भक्ति वैराग्य आदिक फूल और राम-रस आदिक फल रहित संपन्न होवै । हे सांई ! आपके तो मेघरूपी दया भरपूर है, जिससे आप सदा सुकाल स्वरूप हो । अब हमारे परेमश्वर, आपके वियोग रूपी काल का काला मुँह करो और हम दोनों के हृदय रूपी अकाल में प्रेम - दृष्टी का उदय करके दर्शनरूप वर्षा बरसाओ । हे प्रभु ! आपकी कृपा होगी, तो हमारा रोम - रोम आनन्दित होगा । और हम सदैव आपका जय - जयकार करेंगे, आप अनुग्रह करिए और हम विरहीजनों को अपना दर्शन दीजिए । 
इति विरह का अंग टीका सहित सम्पूर्ण ॥ अंग ३ ॥ साखी १५९ ॥ 

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