*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू तन मन मेरा पीव सौं, एक सेज सुख सोइ ।*
*गहिला लोग न जाणही, पच पच आपा खोइ ॥२२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता मुक्तजन तन - मन को परमेश्वर में एकाग्र करके हृदयरूपी सेज पर सुखपूर्वक आत्म - स्वरूप में निश्चल भाव से सहज समाधि में स्थित होकर ब्रह्मभाव को प्राप्त होते हैं । परन्तु संसारीजन इस तÎव को नहीं समझकर बाह्य विषयों में ही पच - पचकर आत्मतÎव को खो बैठते हैं और महापुरुषों की निन्दा करते हैं ॥२२॥
चोखो एक चमार, पंढरपुर बीठल हरी ।
दोनों जीमत लार, मूढ न जाने तास गति ॥
दृष्टान्त - पंडलपुर में चोखाराम चमार परमेश्वर का भक्त था । एक रोज रसोई बनाकर भीतर घी का बर्तन लेने गया । एक कुत्ता आया, सब फुलके मुँह में पकड़कर चल दिया । पीछे से इन्होंने देखा । ये बोले - महाराज, ठहरो ! कोरी मत खाओ, चुपड़ने दो । आगे कुत्ता और पीछे घी का बर्तन लिए चोखाराम चले जा रहे हैं । नगर के बाहर जंगल में दोनों पहुँच गए । कुत्ते में भगवान् प्रकट होकर बोले - चोखाराम ! कुत्ते में भी तू मुझे ही देखता है । चोखाराम बोला - कुत्ते में क्या देखता हूँ । आप तो मुझे सम्पूर्ण ब्रह्मांड में दिखाई दे रहे हो । भगवान् बोले - "तैने मुझे कुत्ते रूप में प्रकट किया है, मैं रोज तेरे साथ कुत्ते रूप से प्रकट होकर भोग लगाया करूँगा । रसोई बनती, चोखाराम कहते - भगवन् ! प्रसाद पाओ । यह कहते ही भगवान् कुत्ते रूप से प्रकट हो जाते । दोनों साथ ही जीमते । बहिर्मुख दुनियावी जीव हँसते और कहते, "चोखाराम पागल हो गया । कुत्ते के साथ भोजन करता है ।" मूढ लोग इस विषय को क्या जानें ? संतों की निन्दा करते रहते हैं ।
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*दादू एक हमारे उर बसै, दूजा मेल्या दूर ।*
*दूजा देखत जाइगा, एक रह्या भरपूर ॥२३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हमारे एक भगवान् का ही पतिव्रत है और "दूजा मेल्या दूरि." तीर्थ, व्रत, अन्य देवी - देवता की उपासना, सकाम कर्म, इन सब साधनों को त्यागकर हमने एक परमेश्वर में ही लय लगाई है । अन्य सब साधन विनाशी हैं । माया और माया का कार्य प्रपंच यह सब परिवर्तनशील है, देखते - देखते ही विनाश हो जाएँगे । सर्वव्यापक परमेश्वर ही अविनाशी स्वरूप है । हम तो उसी में लय लगाकर स्थित रहते हैं । आप भी उसमें लय लगाइये ॥२३॥
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*निश्चल का निश्चल रहै, चंचल का चल जाइ ।*
*दादू चंचल छाड़ि सब, निश्चल सौं ल्यौ लाइ ॥२४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! निश्चल परमेश्वर है, उसके सेवक, कहिए भक्त भी निश्चल स्वरूप में लय लगाकर निश्चल होते हैं । चंचल माया और माया रचित देवी - देवताओं के उपासक जन्म - जन्मान्तरों में भ्रमते रहते हैं । इसलिये हमने तो इनको छोड़कर निश्चल अविनाशी परब्रह्म का पतिव्रत - धर्म धारण करके उसी में स्थित रहते हैं । आप भी उसी में लय लगाकर स्थिर रहो ॥२४॥
चला लक्ष्मी चलं प्राणं, चलन्ति वित्त - यौवनम् ।
चलाचले तु संसारे, धर्ममेको हि निश्चल: ॥
(क्रमशः)
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