मंगलवार, 22 जनवरी 2013

= लै का अंग =(७/३७-९)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*यों मन तजै शरीर को, ज्यों जागत सो जाइ ।*
*दादू बिसरै देखतां, सहज सदा ल्यौ लाइ ॥३७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस प्रकार जागते - जागते निद्रा आ जाती है, तब शरीर को भूल जाते हैं । ऐसे ही मुक्तजनों का यह मन, इस स्थूल शरीर के अध्यास को भूलकर जागृत अवस्था में ही सम्पूर्ण प्रपंच को विसार कर सहज स्वरूप में लय लगाकर ब्रह्मरूप हो जाता है ॥३७॥ 
.
*जिहि आसन पहली प्राण था, तिहि आसन ल्यौ लाइ ।*
*जे कुछ था सोई भया, कछू न व्यापै आइ ॥३८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह प्राणधारी जीव, आत्मा ब्रह्म स्वरूप को भूलकर मायावी प्रपंच में आसक्त हो रहा है । इसलिए इस प्रपंच का त्याग करके अपना स्वरूप ब्रह्म में लय लगाओ, तब निरावरण होकर उस निर्वाण पद को प्राप्त होंगे । फिर ऐसे पुरुषों पर माया - प्रपंच का किंचित् भी प्रभाव नहीं पड़ता । "जिहि आसन", कहिए गर्भ आसन अर्थात् गर्भ में जो परमात्मा से कोल किया था, उसको पूरा कर और "सत्संग आसन" अर्थात् सत्संग में जाकर नित्य - अनित्य का विचार कर ॥३८॥ 
उपजन आसन = आत्माकार उपजन से ब्रह्म आसन = स्वस्वरूप ब्रह्म स्थिति को प्राप्त करो ।(चार आसन- १. गर्भ, २. ब्रह्म, ३.उपजन, ४. सत्संग ।)
इक बणियो दीवान ह्वै, धर राखी पोशाक । 
ताहि देख गब्र्यो नहीं, रीझ कियो नृप नाक ॥ 
दृष्टान्त - एक निर्धन बनिया राजा का दीवान बना । वह अपनी पूर्व स्थिति को कभी नहीं भूला । अपने कटे - फटे वस्त्रों के दर्शन करके कचहरी में जाया करता था, ताकि मन अहंकार को प्राप्त नहीं होता था । प्रजा के साथ बहुत अच्छा न्याय का व्यवहार करता रहा । राजा उसके न्याय को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और उसको अपना निज मन्त्री बना लिया । देखिये, सत्यता के व्यवहार से मनुष्य की उन्नति होती है और वह ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर पहुँच जाता है । "जिहि आसन", कहिए मानवता के आसन के लक्ष्य को पूरा करने से कल्याण को प्राप्त होता है ।
.
*तन मन अपणा हाथ कर, ताहि सौं ल्यौ लाइ ।*
*दादू निर्गुण राम सौं, ज्यों जल जलहि समाइ ॥३९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे जल, जल में मिलकर एक स्वरूप हो जाता है, उसी प्रकार तन - मन का निग्रह करके, निर्गुण ब्रह्म में अखंड लय लगाकर, तद्रूप हो जाइये । आत्मा को परमात्मा में विचार द्वारा अभेद करिये ॥३९॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें