सोमवार, 21 जनवरी 2013

= लै का अंग =(७/३४-६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*लय*
*परआत्म सो आत्मा, ज्यों जल उदक समान ।*
*तन मन पाणी लौंण ज्यों, पावै पद निर्वाण ॥३४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! शब्द का भेद होने पर भी जैसे जल और उदक एक ही अर्थ के वाचक हैं, तैसे ही जीवात्मा और परमात्मा भी एकार्थ हैं अर्थात् अभिन्न हैं । जैसे नमक जल में मिलकर तद्रूप होता है, वैसे ही तन - मन को आत्मस्वरूप में लयलीन करके निर्वाण परम पद को प्राप्त करो ॥३४॥ 
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*मन ही सौं मन सेविये, ज्यौं जल जलहि समाइ ।*
*आत्म चेतन प्रेम रस, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥३५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे जल में जल मिलकर अभेद हो जाता है, वैसे ही व्यष्टि मन को समष्टि मन में अभेद करो । यही मानसिक पूजा का परम फल है कि जैसे जल जल में मिलता है, वैसे ही भक्तजन भी परमेश्वर का स्वरूप हो जाते हैं । इसलिए जीवात्मा को चैतन्य स्वरूप में अभेद कीजिए और परम प्रेमपूर्वक परमेश्वर के स्वरूप में अखण्ड लय लगाइये ॥३५॥ 
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*छाड़ै सुरति शरीर को, तेज पुंज में आइ ।*
*दादू ऐसे मिल रहै, ज्यों जल जलहि समाइ ॥३६॥ *
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब सुरति शरीर के अध्यास को छोड़कर और "तेज पुंज" कहिए, ब्रह्माकार सुरति होवे, तब फिर ऐसे जीवात्मा ब्रह्म में अभेद हो जाता है, जैसे कि जल में जल समा जाता है ॥३६॥ 
(क्रमशः)

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