॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= लै का अंग ७ =*
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*एक मना लागा रहै, अंत मिलेगा सोइ ।*
*दादू जाके मन बसै, ताको दर्शन होइ ॥४०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! निश्चल मन करके, आत्मस्वरूप में लय लगाकर, उसी में अभेद हो जाओ । जिसका मन अनन्य भाव से परमेश्वर में ही लयलीन रहता है, उन पुरुषों को ही परमेश्वर का साक्षात्कार दर्शन होता है ॥४०॥
"न तच्चिन्तनं तत्कथं अन्योSन्यं तत प्रबोधनम् ।
तदेकपरत्वं च ब्रह्माभ्यासं विदुर्बुधा ॥ "
(विद्वानों ने ब्रह्म का चिन्तन, कथन व परस्पर "सत्यराम" अभिवादन को ही ब्रह्माभास बतलाया है ।)
एक मनां एको दिसा, हरि को बिड़द गहिये ।
"नामदेव" नाम जहाज है, भौसागर तिरिये ॥
नाम निरंजन जीव है, सोधो मध्य श्वास ।
जन "रजजब" वे क्यूं रहैं, बिन आये उन पास ॥
जल में बसै कमोदिनी, चन्द बसै आकास ।
जो जाके मन मैं बसै, सो ताही के पास ॥
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*दादू निबहै त्यौं चलै, धीरै धीरज मांहि ।*
*परसेगा पीव एक दिन, दादू थाके नांहि ॥४१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस साधन द्वारा तुम्हारा मन स्वस्वरूप में एकाग्र होवे, उसी प्रकार लय लगाइये और भीतर हृदय में धीरज धरके यह विश्वास रखो कि कृपालु परमेश्वर का कभी न कभी एक दिन अवश्य दर्शन होगा । परन्तु प्रभु की भक्ति से कभी भी उदास नहीं होना ॥४१॥
प्रयाणकाले मनसाSचलेन ।
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमाविश्व सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥
टींटोड़ी अंडा धरै सागर लिये डुबाय ।
श्रद्धा करि थाकि नहीं, समुन्दर दीन्हे लाय ॥
दीरध काल, निरंतर श्रद्धा, मन उछाह हिरदै विश्वास ।
पंच प्रकार रहै उर जाके, "रज्जब" राम मिलन की आस ॥
आतुर तासूँ आखड़ै, आलस किये अकाज ।
"जगन्नाथ" धीरज धरै, बरतन ब्रह्म विराज ॥
दृष्टान्त - एक टींटोड़ी ने समुद्र के किनारे अंडे दिये । एक दिन समुद्र ने अपनी झाल से उन अंडों को अपने अंदर डुबा लिया । टींटोड़ी को समुद्र पर क्रोध आया और वह उसे सुखाने का प्रयत्न करने लगी । अपने पंजों और चौंच से समुद्र में रेत डालने लगी । दूसरे पक्षियों ने भी सोचा कि कल को समुद्र हमारे अंडे भी डुबो सकता है, अत: सभी टींटोड़ी की सहायता करने लगे और सबने समुद्र में रेत डालना शुरु कर दिया । पक्षियों की यह लीला देखकर नारदजी गरुड़जी के पास गये और बोले - पक्षिराज ! आपकी प्रजा पर यह मुसीबत आई हुई है, अत: आपको उनकी सहायता अवश्य करनी चाहिये,गरुड़जी ने अपने स्वामी भगवान् विष्णु से अपनी प्रजा को सताने के बारे में समुद्र की शिकायत की । भगवान् अपने सेवक की आर्त - वाणी सुनकर समुद्र पर अग्निबाण साधने लगे तो समुद्र घबड़ा गया और टींटोड़ी के अंडे वापस लौटाकर क्षमायाचना की ।
दृष्टांत - जैसे टींटोड़ी ने पूर्ण श्रद्धा व विश्वास के साथ समुद्र की विशालता की परवाह न करते हुए अपने काम में जुट गई और अन्त में सफलता प्राप्त की, वैसे ही साधक को परमेश्वर की प्राप्ति के लिए कठिन से कठिन साधना में भी पूर्ण लगन, श्रद्धा और विश्वास के साथ लग जाना चाहिये तभी परमेश्वर की प्राप्ति होगी ।
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*लय*
*जब मन मृतक ह्वै रहै, इन्द्री बल भागा ।*
*काया के सब गुण तजै, निरंजन लागा ॥४२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब मन मृतक, निश्चल, गुणातीत हुआ, तो इन्द्रियादिक का भी विषय - प्रवृत्ति रूप बल नहीं रहता है और शरीर के अध्यास से मुक्त होकर जीवनमुक्त पुरुष निर्गुण ब्रह्म में लयलीन रहते हैं ॥४२॥
(क्रमशः)
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