बुधवार, 23 जनवरी 2013

= लै का अंग =(७/४३-४५)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*आदि अंत मधि एक रस, टूटै नहीं धागा ।*
*दादू एकै रह गया, तब जाणी जागा ॥४३॥* 
टीका - इस रीति से सर्व अवस्थाओं में एक रस होकर ब्रह्म में अखंड तदाकार रूप वृत्ति रहने पर मुक्तजन अद्वैत ब्रह्मस्वरूप होते हैं । इतनी कसौटी पूरी होवे, तो समझिए कि यह जीवात्मा अज्ञान - निद्रा से जागा है और उसे स्वस्वरूप बोध हुआ है ॥४३॥ 
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*जब लग सेवग तन धरै, तब लग दूसर आहि ।*
*एकमेक ह्वै मिलि रहै, तो रस पीवन तैं जाइ ॥४४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब तक जिज्ञासुजनों को थोड़ा भी देह अध्यास है, तब तक परमेश्वर से द्वैतभाव है और जब मुक्तजन देह अध्यास बिसार कर परमेश्वर से अभेद होवें, तो अद्वैत अमृत वा अपूर्व आत्मानन्द का अनुभव करते हैं । ब्रह्मऋषि सतगुरु से द्वैतवादी और अद्वैतवादी संत पूछते हैं कि हे दयानिधे, "जब तक सेवक तन धरै." अर्थात् सेवक - सेव्यभाव है, तब तक तो भक्ति - रस निमित्त द्वैतभाव व्यापता है और जब सेवक - सेव्यभाव भूलकर स्वस्वरूप में अभेद होवे तो "रस पीवन तैं जाइ" अर्थात् भेद - भक्ति का अपूर्व रस प्राप्त नहीं होता है । आप कृपा करके इसका यथार्थ निर्णय करिये ॥४४॥ 
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*ये दोनों ऐसी कहैं, कीजे कौन उपाइ ।*
*ना मैं एक, न दूसरा, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥४५॥* 
इति लै का अंग सम्पूर्ण ॥अंग ७॥साखी ४५॥ 
टीका - "हे जिज्ञासुओं !" प्रस्तुत साखी उपरोक्त साखी के उत्तर में कही गई है । श्री ब्रह्मऋषि सतगुरु परमेश्वर से विनय करते हैं कि हे प्रभु ! "ये दोनों" कहिए भेद - भक्ति रस को पीने वाले भक्तजन और अद्वैतवादी ब्रह्मज्ञानियों में पूर्वोक्त प्रकार से परस्पर विवाद है । आप ही यह निर्णय करिये । प्रत्युत्तर में भगवान् का उपलक्षण करके, महाप्रभु उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासुजनों ! "मैं, मेरा आत्मस्वरूप ब्रह्म" न तो एक है और न दूसरा है अर्थात् पूर्ण समर्थ प्रभु भेदवादी भक्तों को तो भेद-भक्ति द्वारा अपूर्व भक्ति रस पिलाते हैं और भिन्न स्वरूप प्रतीत होते हैं, एवं अद्वैतवादी मुक्तजनों से अभिन्न एक रूप होकर अद्वैतामृत का परमानन्द अनुभव कराते हैं, फिर उनमें द्वैतभाव नहीं है । अर्थात् अनिर्वचनीय ब्रह्मतत्व में एकत्व और अनेकत्व का संख्याभाव ही असम्भव है । परमेश्वर तो सर्व समर्थ और पूर्ण दयालु हैं । इसलिये हे भाइयों ! परमेश्वर में अखंड लय लगाओ । जो जिस जगह, जिस स्थिति में, अद्वैत या द्वैत की जैसी निष्ठा है, वहाँ ही प्रभु उनके लिए वैसे ही प्रकट हो जाएँगे ।
माननीय तो मान कर, जेतो कंत सुहाइ । 
लाख टकां की पानड़ी; तो पहरीजे पांइ ॥ 
इति लै का अंग टीका और दृष्टान्तों सहित सम्पूर्ण ॥अंग ७॥साखी॥४५॥ 
(क्रमशः)

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