रविवार, 20 जनवरी 2013

= लै का अंग =(७/२८-३०)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*दादू सहजैं सुरति समाइ ले, पारब्रह्म के अंग ।*
*अरस परस मिल एक ह्वै, सन्मुख रहबा संग ॥२८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपनी सुरति को "सहजैं" कहिए, निद्र्वन्द्वता पूर्वक आत्म - स्वरूप परब्रह्म में लगाओ । तो उस परमात्मा से हृदय रूपी आकाश में ही ओत - प्रोत भाव को प्राप्त होंगे । वहीं पर परमात्मा के सन्मुख रहो ॥२८॥ 
*सुरति सदा सन्मुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन ।*
*सहज रूप सुमिरण करै, निष्कामी दादू दीन ॥२९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता पुरुषों की वृत्ति सदैव स्वस्वरूप में ही स्थिर रहती है और फिर घर प्रवृत्ति - मार्ग और वन निवृत्ति - मार्ग तथा जागृत - स्वप्न, कहीं भी सी भी अवस्था में रहें, वे उसी जगह ब्रह्म के अखण्ड स्वरूप में लय लगाये रहते हैं । इस प्रकार निर्द्वंद कहिए, सम्पूर्ण विकारों से रहित होकर, निष्काम भाव से भक्तजन प्रभु का स्मरण करते हैं ॥२९॥ 
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*सुरति सदा साबति रहै, तिनके मोटे भाग ।*
*दादू पीवैं राम रस, रहैं निरंजन लाग ॥३०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिन ब्रह्मवेत्ताओं की सुरति कहिए, वृत्ति स्वस्वरूप में सदैव पूर्णतया लगी रहती है, उन पुरुषों का अक्षय पुण्य है । वे ही राम के साक्षात्कार रूप अमृत रस को पान करते हैं और निरंजन देव में ही समाये रहते हैं ॥३०॥ 
अहो पुण्यमहो पुण्यं फलि फलितं दृढम् । 
अस्य पुण्यस्य सम्पत्ते रहो वयमहो वयम् ॥ 
कुलं पवित्रं जननी कृतार्था विश्वम्भरा पुण्यवती च तेन । 
अपार - संवित्सुखसागरेSस्मिल्लीनं पर ब्रह्मणि यस्य चेत: ॥ 
(क्रमशः)

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