*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= लै का अंग ७ =*
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*सूक्ष्म सौंज*
*दादू सेवा सुरति सौं, प्रेम प्रीति सौं लाइ ।*
*जहँ अविनाशी देव है, तहँ सुरति बिना को जाइ ॥३१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! प्रेमरूपी पुष्प और प्रीतिरूपी पाती सहित उस अखंड ज्योति में अपनी सुरति लगाकर परब्रह्म की यहीं सेवा पूजा कीजिए । क्यों कि वह अविनाशी निरंजनदेव, ब्रह्माकार सुरति के बिना और कोई बहिरंग साधनों से नहीं जाने जा सकते हैं ॥३१॥
जड़ भेदै पाषाण में, कालू तर गिर हंड ।
साध श्रुति हरि सौं मिलै, तोड़ फोड़ ब्रह्मंड ॥
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*विनती*
*दादू ज्यों वै बरत गगन तैं टूटै, कहाँ धरणी कहँ ठाम ।*
*लागी सुरति अंग तैं छूटै, सो कत जीवै राम ॥ ३२ ॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे लय लगाकर रस्सी पर आकाश में नाचती हुई नटणी की यदि लय टूट जावे तो फिर उसका जीवन कैसे हो सकता है ? उसी प्रकार भगवान् के स्वरूप में एकाग्र हुई भक्तों की लय वृत्ति टूट जाये तो फिर वह परमेश्वर के भक्त कैसे जीवित रह सकते हैं ?।३२॥
चोपाईः-
जैसे बरत बांस चढि नटनी,
बारम्बार करै तहाँ अटनी ।
इत उत कहुं नेकहु न हेरै,
ऐसी लय जन हरि तन फेरै ॥
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*अध्यात्म*
*सहज योग सुख में रहै, दादू निर्गुण जाण ।*
*गंगा उलटी फेरि कर, जमुना मांहि आण ॥३३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण योगों में एक लय योग ही निष्कलेश योग है और निर्गुण ब्रह्म को जानना रूप इसमें अपूर्व सुख है । इस लय योग में तन्मयता होने पर जिज्ञासुजन, सर्व गुण विकारों से निर्गुण होकर परम सुख प्राप्त करते हैं । और "गंगा उलटी फेरि कर" से ब्रह्मवेत्ताओं की ब्रह्मज्ञानाकार और ब्रह्मध्यानाकार वृत्ति का संकेत है । जब ब्रह्म - ध्यान में अखंड लय लग जाय, तो जिज्ञासुजन उसका गंगा - यमुना की भाँति धारा प्रवाह रूप से वेग का वर्णन करते हैं । उठते - बैठते, चलते - फिरते, खाते - पीते, सोते - जागते, श्वास वृत्ति द्वारा प्रवाह बना रहता है, तहाँ उठते श्वास ब्रह्माकार वृत्ति को गंगा रूप और बैठते श्वास वृत्ति को यमुना रूप प्रतिपादन किया है । गंगा को फेर कर, यमुना में लाने का भाव यह है कि हर समय श्वासों - श्वास ब्रह्मवृत्ति अखंड ही बनी रहे ॥३३॥
(क्रमशः)
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