॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= लै का अंग ७ =*
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*दादू पावै सुरति सौं, बाणी बाजै ताल ।*
*यहु मन नाचै प्रेम सौं, आगै दीन दयाल ॥२५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! उपरोक्त कथन का ही स्पष्टिकरण करते हैं कि जिज्ञासुओं का मन ब्रह्म - सुरति द्वारा स्वरूप - बोध रूपी गायन करके नाम - स्मरण रूप ताल बजावे । फिर इस प्रकार प्रेमाभक्ति में अभेद होना ही मानो मनोहर नृत्य है । अब इस अपूर्व नृत्य को देखने वाले स्वयं परमेश्वर ही हैं ॥२५॥
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*विरक्तता*
*दादू सब बातन की एक है, दुनिया तैं दिल दूर ।*
*सांई सेती संग कर, सहज सुरति लै पूर ॥२६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सब साधनों का एक ही साधन यह है कि अपने मन को मायावी प्रपंच से हटाकर, ब्रह्म सुरति में पूर कर, अधिष्ठान चैतन्य परमात्मा से अभेद हो जाओ ॥२६॥
नातिस्नेह: प्रसंगो वा कर्तव्य: क्वाSपि केनचित् ।
कुर्वन् विन्देत् सन्तापं कपोत इव दीनधी: ॥
(भागवत)
पीव मिलै तो प्रीति कर, प्रीति करै तो नाट ।
बिन बैरागन हरि मिलै, सो फेरां इक गांठ ॥
साध रख्यो नृप बाग में, बतखां चुग गई हार ।
खर चढ कर हेलो दियो, इन सौं मिलि ह्वै ख्वार ॥
दृष्टान्त - एक संत घूमते हुए राजा के बाग में आकर ठहर गए । राजा आदि से लेकर सब लोग दर्शन और सत्संग करने आया करते थे । एक रोज राजा का कुँवर कई साथियों को साथ लेकर बगीचे में स्नान करने आया । कपड़े उतार कर सब लोग स्नान करने को कुंड में उतर गए । एक बतख घूमती हुई आई । कपड़ों पर राजा के कँवर का हार रखा था, वह निगल गई ।
जब सब लोग कपड़े पहनने लगे तो राजकुमार को हार नहीं मिला । तब विचार किया कि यहाँ और तो कोई आया नहीं, हो सकता है, हार संत जी ने उठा लिया । वह जाकर बोला - महाराज, हमारा हार दे दो । महात्मा बोले - हमें तो पता नहीं हार का ! तब राजकुमार ने राज दरबार में आकर पूर्वोक्त सारा वृत्तान्त सुना दिया ।
राजा ने विचार किया कि यदि कोई नहीं आया तो हो सकता है, संत ने ही उठा लिया । राजा ने हुक्म दिया, उनका काला मुँह करो, हाथ पाँव नीले करो और एक गधे पर बिठा कर गांव के चारों तरफ घूमाकर निकाल दो । महात्मा जी का कोई शिष्य भी वहाँ था । उसने आकर महाराज जी से बोल दिया कि राजा ने ऐसा हुक्म दिया है । संत ने खुद ही कोयले पीसे और काला मुँह कर लिया और नीले रंग में अपने हाथ पाँव रंग लिये । बगीचे के बाहर एक गधा चरता था, उसको पकड़ कर उसके ऊपर बैठ गए ।
नगर की तरफ चलने लगे और बोले - इस दुनिया से जो प्रीति करेगा, उसका मेरी तरह काला मुँह होगा । राजा का आदेश पाकर जो लोग आ रहे थे, उन्होंने देखा कि इन्होंने तो खुद ही वह रूप बना लिया है, जो हम लोग इनका बनाते । राजा को जाकर बोले । राजा तुरन्त दौड़ कर आया । गधे पर से उतार लिये । बगीचे में ले जाकर महात्मा को बैठाया और चरणों में नमस्कार किया ।
वहीं पर वह बतख घूमती हुई आई और हार को अपने मुँह से उगल दिया । यह लीला देख कर राजा अति शर्मिन्दा हो गया । महात्मा कहने लगे - भाई तुम्हारा दोष नहीं है । तुम तो मायावी जीव हो । हमारा ही यह अपराध है, जो हम ने परमेश्वर को छोड़कर आप लोगों से प्रीति करी । उसका दण्ड हमने अपने आप पालिया । इसलिए ब्रह्मर्षि कहते हैं कि सब साधनों का एक ही साधन है कि अनात्म पदार्थों से अपने मनको हटा लो ।
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*अध्यात्म*
*दादू एक सुरति सौं सब रहैं, पंचों उनमनि लाग ।*
*यहु अनुभव उपदेश यहु, यहु परम योग वैराग ॥२७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब अन्तःकरण की वृत्ति, सम्पूर्ण बाहर के विषयों से अन्तर्मुख होकर ब्रह्म विचार में संलग्न होती है, तब पाचों ज्ञान इन्द्रियाँ अपने विषयों को छोड़कर उन्मनी कहिए, ब्रह्म दशा में लीन रहती हैं । फिर यही तो अनुभव - ज्ञान का फल है और यही सतगुरु का उपदेश है और वैराग्य,योग, इन सबकी इसी में सफलता है ॥२७॥
चौपाई -
जैसे बालक,सर्प, कुरंगा, थकित सु होइ नाद के संगा ।
ऐसी लै जो कोई लावै, योनि संकट बहुरि न आवै ॥
(क्रमशः)
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