गुरुवार, 24 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/४-६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू मन अपना लै लीन कर, करणी सब जंजाल ।*
*साधू सहजैं निर्मला, आपा मेट संभाल ॥४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! बाह्य कर्मों की जो साधना है, वह तो केवल जंजाल रूप है । इसलिए अहंकार को मेट कर अपने शुद्ध स्वरूप का स्मरण करिये ॥४॥ 
सर्वारम्भा हि दोषेण, धूमेनाग्निरिवावृता: । - गीता 
(अग्नि में धुएँ की तरह सभी कर्मों में दोष भरे हैं ।)
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*दादू सिद्धि हमारे सांइयां, करामात करतार ।*
*ऋद्धि हमारे राम है, आगम अलख अपार ॥५॥* 
टीका - ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज अपने को ही उपलक्षण करके जिज्ञासुओं के प्रति उपदेश करते हैं कि हमारे तो केवल एक सांई का ही पतिव्रत है और वह कृपालु परमेश्वर ही हमारे लिए ऋद्धि - सिद्धि हैं, वे ही करामात हैं और हमारे आगम(भविष्य की जानने वाले) शास्त्र, वेद और ज्योतिष आदि अलख अपार एक परमेश्वर ही हैं ॥५॥ 
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*गोविन्द गोसांई तुम्हीं आमचे गुरु, तुम्हे अमचां ज्ञान ।*
*तुम्हे अमचे देव, तुम्हे अमचा ध्यान ॥६॥* 
टीका - हे गोविन्द ! हे गुसांई ! हमारे तो आप ही गुरु हो, आप ही गुरु का ज्ञान हो । आप ही देव हो और आप ही ध्यान स्वरूप हो ॥६॥ 
देव सु स्वयं प्रकाश हे, साक्षी देवही सोइ । 
और देव अदेव सब, साक्षी बिना न कोइ ॥ 
(क्रमशः)

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