सोमवार, 28 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/३२-३४)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*पतिव्रता निष्काम*
*साहिब जी का भावता, कोई करै कलि मांहि ।*
*मनसा वाचा कर्मना, दादू घटि घटि नांहि ॥३२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस भंयकर कलि - काल में पति को भाने वाले काम करने वाली और पतिव्रत - धर्म में स्थित कोई बिरली ही सुन्दरी रहती है । उसी प्रकार परमात्मा रूप पति को भाने वाले काम मन - वचन - कर्म से कोई बिरले ही जीवात्मा करते हैं । यह पतिव्रत - धर्म घट - घट सम्पूर्ण मनुष्यों में और सर्व स्त्रियों में नहीं होता है । निष्कामी भक्ति और सुहागिनी स्त्रियों में ही यह धर्म स्थिर रहता है ॥३२॥ 
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*आज्ञा मांहैं बैसै ऊठै, आज्ञा आवै जाइ ।*
*आज्ञा मांहैं लेवै देवै, आज्ञा पहरै खाइ ॥३३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! निष्काम पतिव्रत - धर्म धारण करने वाली सुहागिन स्त्री, पतिरूप परमेश्वर की आज्ञा से बैठती है, उठती है, पहनती है, खाती है, लेना - देना आदि सम्पूर्ण काम करती है, वही सच्ची पतिव्रता है । पति की आज्ञा में ही अपने तन और मन को सदैव रखती है । वैसे ही जीवात्मारूप पतिव्रता परमेश्वर रूप पति की आज्ञा से अपने तन - मन आदि को पवित्र बनाकर परमेश्वर की सेवा रूप आराधना में लगाये रहती है । परमेश्वर की आज्ञा में ही उनका सम्पूर्ण व्यावहारिक और पारमार्थिक काम होता है, वही धन्य है ।
पतिव्रता खाती त्रिये, कोऊ जन देखत जाइ । 
घृत छाणत हेलो दियो, त्यों ठाड़ी भई आइ ॥ 
दृष्टान्त - एक नगर में खाती भक्त था । एक रोज एक संत आये । उसने संत को नमस्कार किया । परस्पर प्रश्न उत्तर होने लगे । खाती बोला - मेरी स्त्री पतिव्रता है । उस समय वह स्त्री कपड़े में घी डाल कर छान रही थी । संत बोले - उसको बुलाओ । खाती ने आवाज दी "यहाँ आना" । जिस स्थिति में थी, वैसे ही दोनों हाथों में घी भरा हुआ कपड़ा पकड़े ही चली आई । घी नीचे गिरता रहा । पति बोले - वापिस ही चले जाओ । वैसे ही जाकर काम करने लगी । यह लीला देखकर सन्त ने मन में निश्चय किया और बोले - यह देवी सच्ची पतिव्रता ही है, इसका कल्याण होगा अर्थात् यह अखण्ड सुहाग प्राप्त करेगी । दार्ष्टान्त में, हे जिज्ञासुओं ! जीवात्मारूप पतिव्रता स्त्री, परमेश्वर रूप पति की आज्ञा से व्यवहार और परमार्थ के सम्पूर्ण काम करके परमात्मा रूप पति का अखण्ड सुहाग प्राप्त कर लेती है । उनका फिर परमेश्वर से कभी वियोग नहीं होता ॥३३॥ 
नारी धर्म पतिव्रत ही, इक माना जाय महान । 
पतिव्रत बिन नारी का, भव में नहीं है मान ॥ 
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*आज्ञा मांही बाहर भीतर, आज्ञा रहै समाइ ।*
*आज्ञा मांही तन मन राखै, दादू रहै ल्यौ लाइ ॥३४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! निष्काम पतिव्रत - धर्म में स्थिर रहने वाली पतिव्रता स्त्री, पति की आज्ञा से बाहर और भीतर के सम्पूर्ण व्यावहारिक और पारमार्थिक काम करती है । अपने तन-मन को पति की सेवा रूप आज्ञा में सदैव बनाए रखती है । दार्ष्टान्त में, वैसे ही जीवात्मारूप सुन्दरी निष्काम भक्तजन परमेश्वर रूप पति की आज्ञा में समाये हुए रहते हैं और अपने तन - मन का उपयोग परमात्मारूप पति की आज्ञा में करते हैं, वे ही सच्चे भक्त हैं । उनको परमात्मारूप पति का साक्षात्कार रूप सच्चे सुख प्राप्त होता है । अथवा जो विवेकी पुरुष, शरीर के सर्व प्रारब्ध भोगों में प्रभु की आज्ञा मानकर हर्ष - शोक आदि में समान रहते हैं, अपना सर्व व्यवहार ईश्वर पर छोड़ देते हैं, उन्हें धन्य है ॥३४॥ 
छन्द - 
बैठे हैं निराणै स्वामी, उठे हैं आमेर तैं जू, 
आये सीकरी से अरु, गये उत जानिये ।
आल्हण की कामरी, लई है गुरु आज्ञा मान, 
झारी जल दियो पादू, सांची मन आनिये ।
चोलो गुजराती आयो, पहर्यो है गुरु आज्ञा मान, 
पायो परसाद जो, सरौंज को जु मानिये ।
बाहर गुफा से आये, भीतर उत्थौं ही गये, 
गुरु स्वामी अैसे रहे, और सब जानिये ॥ 
दृष्टान्त - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाप्रभु अपने आप को परमात्मा की आज्ञा में सदैव रखते थे । शेष नागरूप में परमेश्वर की आज्ञा से नरैना में त्रिपोलिया से खेजड़ा जी स्थान पर आकर बैठे और परमेश्वर की आज्ञा से आमेर से उठे । परमेश्वर की आज्ञा से सीकरी अकबर बादशाह के यहाँ गये । उसे ४० दिन तक उपदेश दिया । बादशाह और राजा भगवतदास मानसिंह के बहुत आग्रह करने पर भी वहाँ नहीं ठहरे और परमेश्वर की आज्ञा से वापिस आमेर आये । परमेश्वर की आज्ञा से आल्हण भक्त की कामरी भेंट करी हुई रख ली । परमेश्वर की आज्ञा से अपनी झारी का जल प्रसाद रूप में उसको पिलाया । गुजरात से तेजानन्द जी के हाथ बणजारों द्वारा भेजा हुआ चोला आया, परमेश्वर की आज्ञा से उसको धारण कर लिया । परमेश्वर की आज्ञा से सिरौंज ग्राम के मोहन दफ्तरी द्वारा भेजा थाल का प्रसाद ग्रहण किया । परमेश्वर की आज्ञा से सिन्ध देश से आई रम्भामाता को आमेर में गुफा से बाहर आकर और दर्शन देकर फिर गुफा में चले गए । ऐसे ब्रह्मऋषि गुरुदेव ने परमेश्वर रूप पति की आज्ञा में व्यावहारिक और पारमार्थिक सम्पूर्ण कार्य किया । इसी प्रकार और भी संत परमेश्वर के हुए । वे सब ब्रह्मऋषि की भाँति परमेश्वर रूप पति का पतिव्रत रूप धर्म धारण किया है । अर्थात् अपने को परमेश्वर की आज्ञा में सदैव बनाये रखे हैं । 
(क्रमशः)

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