सोमवार, 28 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/२९-३१)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*सुन्दरी विलाप*
*जिसकी खूबी, खूब सब, सोई खूब सँभार ।*
*दादू सुन्दरी खूब सौं, नखशिख साज सँवार ॥२८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस परमेश्वर की सत्ता से यह सम्पूर्ण जगत सत्तावान् होकर प्रतीत हो रहा है,उसी परमेश्वर का आप स्मरण करिये । हे सुन्दरी रूप जीवात्मा ! पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर से मिलकर नख से शिखा पर्यन्त आप अपने मनुष्य - जन्म को सफल बनाओ ॥२८॥ 
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*दादू पंच आभूषण पीव कर, सोलह सब ही ठांव ।*
*सुन्दरी यहु श्रृंगार करि, ले ले पीव का नांव ॥२९॥* 
टीका - हे जिज्ञासु जीवात्मारूप सुन्दरी ! आप अपनी पंच ज्ञानेन्द्रियों को पवित्र बना कर और मन की सोलह कलाओं का मार्जन करके अर्थात् जिस प्रकार पतिव्रता स्त्रियों के पांच आभूषण होते हैं और सोलह श्रृंगार(वस्त्र, अंजन, मेंहदी, जाबक, मांग, शीशफूल, नथनी, कान की बाली, हाथ का कंगन, पांव की पाजेब) सुहागिन स्त्री करती है, वैसे ही पूर्वोक्त प्रकार से इन सबको परमेश्वर रूप पति के स्वरूप में सुसज्जित करिये और फिर परमेश्वर का नाम स्मरण करो । इसी में आपका कल्याण है ॥२९॥ 
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*यहु व्रत सुन्दरी ले रहै, तो सदा सुहागिनी होइ ।*
*दादू भावै पीव कौं, ता सम और न कोइ ॥३०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो जीव का आत्मा रूप सुन्दरी, परमेश्वर रूप पति का पतिव्रत धर्म धारण करके और पति की आराधना करती है अर्थात् स्मरणरूपी सेवा करती रहती है, वह सच्ची सुहागिनी है और वही पीव को अत्यन्त ही प्रिय है । उसी का जन्म धन्य - धन्य है ॥३०॥ 
(क्रमशः)

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