॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*पतिव्रता गृह आपने, करै खसम की सेव ।*
*ज्यों राखै त्यों ही रहै, आज्ञाकारी टेव ॥३५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! पतिव्रता स्त्री अपने घर में अपने पति को परमेश्वर रूप जानकर उसकी चैतन्य रूप से उपासना करती है और स्थूल शरीर से स्थूल शरीर की सेवा करती है । जैसे पति अपनी आज्ञा में रखता है, वैसे ही आज्ञा में बनी रहती है । इस प्रकार अपने पति की सेवा करती है । वैसे ही दार्ष्टान्त में, प्रभु के अनन्य भक्तों के एक परमेश्वर का ही पतिव्रत है । वे परमेश्वर के भक्त अनन्य भाव से प्रभु का ही सर्व व्यवहार बर्तते हैं । एक प्रभु आज्ञा की ही उन्हें धारणा है । उनको धन्य है ॥३५॥
"निरुध्य चेन्द्रियग्रामं मन: संरुध्य चानघ ।
पतिं देववच्चापि चिन्तयन्त्य स्थिता हि या: ॥"
मातापित्रोश्च शुश्रुषा स्त्रीणां भर्तरि च द्विज !
स्त्रीणां धर्मात्सुधाराद्धि नान्यं पश्यामि दुष्करम् ॥ - महाभारत
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*सुन्दरी विलाप*
*दादू नीच ऊँच कुल सुन्दरी, सेवा सारी होइ ।*
*सोई सुहागिन कीजिये, रूप न पीजे धोइ ॥३६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! व्यवहार में जैसे कुल, गोत्र आदि से ऊँच - नीच भाव होता है, वैसे ही परमार्थ में आभास बुद्धि की भक्तिरूप सेवा परायणता ही ऊँच - नीच, कुल, जाति आदिक हैं । जैसे व्यवहार में पतिव्रत - धर्म ही सुहाग है, ऐसे ही परमार्थ में निष्काम भक्ति करना ही सुहाग है, हे सज्जनो ! निष्काम भक्ति के बिना "रूप न पीजे धोइ" व्यवहार में सेवा के बिना अति सुन्दर रूप का क्या करें ? परमार्थ में सकाम सेवा एवं देवी - देवताओं की सेवा रूप सुन्दरता निष्फल है अथवा परमेश्वर और परमेश्वर के अनन्य भक्तों के लिये नीच - ऊँच आदिक भेद नहीं हैं । भक्ति ही भक्तों का सुहाग और रूप है ॥३६॥
व्याधस्याचरणं धु्रवस्य च वयो विद्या गजेन्द्रस्य का ।
कुब्जाया: किं नाम रूपमधिकं किं तत्सुदाम्नो धनम् ।
का वा जाति: विदुरस्य यादवपते: उग्रस्य किं पौरूषम् ।
भक्त्या तुष्यति केवलं न तु गुणैर्भक्तिप्रियो माधव: ॥
(व्याध अच्छे आचरण वाला भी नहीं था, बालक ध्रुव की अवस्था भी कठिन तपस्या करने की नहीं थी, गजेन्द्र शिक्षित भी नहीं था, कुब्जा दासी कोई रूपवती भी नहीं थी, सुदामा गरीब ब्राह्मण था, विदुर उच्चकुल का नहीं था, यादवों का राजा उग्रसेन पौरुषशाली नहीं था । फिर भी भगवान् ने इनकी भक्ति श्रद्धा पर प्रसन्न होकर इन पर कृपा की ।)
रूप बिना नारी भली, सेवा में इकतार ।
अति सुन्दरि सेवा बिना, जगन्नाथ सिर छार ॥
सदना अरु रैदास के, कुल कारण नहिं कोइ ।
प्रभु आये सब छोड़कर, बिप्र बैस्नों रोइ ॥
दृष्टांत - भक्त सदन कसाई और भक्त रैदास जी चमार थे, इनके विषय में सभी लोग जानते हैं । ये भगवान् के निष्कामी भक्त थे । इनकी भक्ति से भगवान् वश में हुए सदना कसाई शालग्राम की मूर्ति(पत्थर) से माँस तोला करता था । एक वैष्णव भक्त ने सदना से कहा - शालग्राम भगवान् से माँस तोलना ठीक नहीं । अत: यह सालग्राम मुझे दे दो । घर जाकर वैष्णव भक्त ने पवित्र रीति से प्रसाद बनाकर शालग्राम जी के भोग लगाया, परन्तु वैरागी साधु की सेवा - पूजा से अप्रसन्न हुए । रात्रि को स्वप्न में वैष्णव से भगवान् ने कहा - तुम मुझे सदना के पास ही पहुँचा दो मुझे वही अच्छा लगता है । भक्त सदन कसाई की भक्ति ने भगवान् को आकर्षित किया अर्थात् भगवान् सदन कसाई के पास आ गये । वैसे ही रैदास जी चमार थे । वे सालग्राम जी की पूजा करते थे । ब्राह्मणों ने राजा से शिकायत की शूद्र को भगवान् सालग्राम की मूर्ति की पूजा का अधिकार नहीं है । राजा - भगवान् न्याय करेंगे । वैष्णवों और रैदास के बीच में मूर्ति रखी, रैदास जी की भक्ति के वशीभूत होकर भगवान् काशी में ब्राह्मणों को त्याग कर रैदास जी की गोद में आ बैठे । भगवान् तो जाति - पाँति को नहीं मानते, केवल एक भक्ति का ही नाता मानते हैं ।
जाति पाँति पूछो मत कोई, हरि को भजै सु हरि का होई ॥
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*दादू जब तन मन सौंप्या राम को, ता सन क्या व्यभिचार ।*
*सहज शील संतोंष सत, प्रेम भक्ति लै सार ॥३७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संत पुरुषों ने अपना तन, मन, धन, सर्वस्व प्रभु के अर्पण किया है । उनको व्यभिचार, माया आसक्ति से क्या काम है ? क्योंकि परमेश्वर के भक्तों को मन, वाणी, शरीर द्वारा स्वप्न में भी विषय - विकार, मायावी पदार्थों में आसक्ति नहीं होती है, अथवा हे जिज्ञासुओं ! जब तन, मन आदि सर्वस्व प्रभु के अर्पण कर दिये, तो अब प्रभु से सकामता रूप व्यभिचार क्या करिये ? क्योंकि स्वयं प्रभु ही तुम्हारी योग - क्षेम आदि सर्व कामना पूर्ण करेंगे । तुम तो निद्र्वन्द्व ब्रह्मचर्य, संतोंष, सत, प्रेमा भक्ति द्वारा श्रेष्ठ निष्काम स्वभाव से प्रभु में लय लगाइये ॥३७॥
(क्रमशः)
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