बुधवार, 30 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/३८-४०)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
.
*पर पुरुषा सब परहरै, सुन्दरी देखै जागि ।*
*अपणा पीव पिछाण करि, दादू रहिये लागि ॥३८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! निष्कामी भक्तजन स्वस्वरूप का बोध करके माया के प्रपंच अर्थात् मायिक पदार्थों का तन - मन से त्याग कर देते हैं और पति परब्रह्म स्वरूप का साक्षात्कार करके उसी में अभेद होते हैं ।
सर्याति नृप की सुता, दई च्यवन को ब्याह ।
ते तीनों जल में बड़े, पीछे पति गई पाह ॥ 
दृष्टांत - सर्याति राजा की कन्या सरोवर पर घूमने गई । तीर पर बैठकर दोनों हाथों से पानी ले ले कर एक मिट्टी के टीले पर फेंकने लगी । वह मिट्टी धुलकर सफेद - सफेद आँखें निकल आईं । उसने एक तिनका लेकर आँखों में मारा, खून निकल पड़ा और समाधि से ऋषि उत्थान हो गए । लड़की डरने लगी । राजा सर्याति भी वहाँ आ गए और ऋषि को पूछा - आपका क्या नाम है ? उन्होंने कहा - मेरा च्यवन ऋषि नाम है । राजा ने विचार किया कि अब इनकी सेवा के लिए मैं अपनी लड़की को ही इनके पास दासी रूप से छोड़ दूँ । फिर राजा बोला - ऋषिराज ! यह लड़की आपको मैंने समर्पित कर दी है, यही आपकी सेवा करेगी । लड़की ने च्यवन ऋषि को अपना पति स्वीकार कर लिया । च्यवन ऋषि ने अश्विनी कुमारों का आह्वान किया और बोले, मेरे शरीर का कल्प करवाओ । अश्विनी कुमार एक पानी के कुण्ड में बहुत सी औषधियाँ डालकर च्यवन ऋषि सहित कुण्ड में उतर गए । वे तीनों महान् दिव्यरूप बन गए । कन्या ने अपने पतिव्रत धर्म के बल पर कहा - "मेरा पति अलग हो जाए" । तत्काल अश्विनी कुमार अलग हो गए और च्यवन ऋषि के साथ अपनी प्रीति करके वह कन्या आनन्द को प्राप्त हुई । ऐसे ही संतपुरुष परमात्मा रूपी पति को पहचान कर और उसके साथ अभेदतारूप आनन्द की अनुभूति करते हैं ॥३८॥ 
*आन पुरुष हूँ बहिनड़ी, परम पुरुष भरतार ।*
*हूँ अबला समझूं नहीं, तूं जानै करतार ॥३९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! एक समय सतगुरू भगवान् के पास माया ने अपने सात रूप बनाये । आपने तब इस साखी से माया को उपदेश किया है कि हे बहिनड़ी ! हे माया ! हम तो पर पुरुष हैं, तेरा भर्तार स्वामी तो परमेश्वर है । इसलिए अपने चरित्रों से केवल प्रभु को ही रिझाइये । प्रत्युत्तर में, माया सतगुरु भगवान् से प्रार्थना करती है कि हे दयालु ! प्रभु से विमुख होने से मैं तो अबला हूँ आप ही कर्तार के भेद को जानते हो, सो आप मेरे लिए भी उपदेश करिये । यह कहकर माया नतमस्तक हो गई ॥३९॥ 
सात चरित माया किये, गुरु दादू ढिंग आइ । 
स्वामी यह साखी कही, लज्जित ह्वै उठि जाइ ॥ 
दृष्टान्त - जब दादूजी कर डाला(कल्याणपुर) की पहाड़ी पर केवल वनस्पति खाकर कठोर तपस्या कर रहे थे, तो इन्द्र घबड़ा गया और उसने अप्सरा रूप माया को तप - भंग करने के लिये दादूजी के पास भेजा । जब वह काम - जाग्रत हेतु हाव - भावादि चेष्टाएं करने लगी, किन्तु इनका दादूजी के निष्काम मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे ध्यानावस्था में प्रभु भक्ति में तल्लीन रहे । तब माया ने सात प्रकार के चरित्र रच करके उनको तप से डिगाने के प्रयत्न किए, किन्तु वह अपना मनोरथ पूर्ण करने में असफल रही और हार - थक कर बैठ गई । तब दादूजी ने उससे कहा - "सब हम नारी, एक भरतार ।" इस अखिल ब्रह्मांड में निरंजन निराकार ही केवल पुरुषोंत्तम है, हम सब तो उस जगत्पति परमेश्वर की नारी रूप जीवात्मा है । अत: तुम मुझे पुरुष नहीं, अपनी बहिन कर जानों । मैं तो अभी निरी अबोध बाला हूँ, तुम्हारी इन चेष्टाओं का मन्तव्य समझती भी नहीं । आओ तुम भी उस सृष्टिकर्ता परमपुरुष पतिदेव का परिचय प्राप्त कर जानने का प्रयत्न करो । ये शब्द सुनकर माया अप्सरा बहुत लज्जित हुई और अपने अपराध की क्षमा याचना के साथ प्रणाम करके सुरलोक सिधार गई । 
.
*जिसका तिसकौं दीजिये, सांई सन्मुख आइ ।*
*दादू नख शिख सौंप सब, जनि यहु बंट्या जाइ ॥४०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह नख से शिखा पर्यन्त सम्पूर्ण शरीर जिस प्रभु का दिया हुआ है, निष्काम पतिव्रत - धर्म के द्वारा उस समर्थ के ही अर्पण करिये । क्योंकि यह उत्तम मानव शरीर कहीं माया - प्रपंच में नहीं उलझ जावे ॥४०॥ 
आपा सौंपे राम को, हरि अपनावै ताहि । 
जगन्नाथ जगदीश बिन, आपो दीजै काहि ॥ 
मत्तगयन्द
देत हि देत बोयो जु उगावत, 
भावत है भगवंत भलाई । 
कृपालु कबीर दई द्विज दोवटी, 
ताहि तैं ताके जु बालद आई ॥ 
धान की पोट धन्ना दई विप्रहिं, 
बीज बिना सु कृषि निपजाई । 
हो "रज्जब" रंग रह्यो दिये दान जु, 
दादूदयालु पैसा अर पाई ॥ 
-सुकृत का अंग 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें