बुधवार, 30 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/४१-४३)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*सारा दिल सांई सौं राखै, दादू सोई सयान ।*
*जे दिल बंटै आपना, सो सब मूढ़ अयान ॥४१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो पुरुष अपने अन्तःकरण की वृत्तियों को एक परमेश्वर में ही एकाग्र किये रहे, वही पुरुष बुद्धिमान् है । किन्तु जो पुरुष परमेश्वर से अपनी वृत्ति हटाकर माया प्रपंच में उलझावे, ऐसे पुरुष मूर्खा में अधम हैं ॥४१॥ 
सुलतानी गयो बलख तज, रह्यो एकान्त हि जाइ । 
सुत त्रिय गये दीदार को, नैंन बूंद बन जाइ ॥ 
दृष्टान्त - बलख बुखारे के बादशाह सुलतानशाह फूलों की सेज पर शयन किया करते थे । फूलों की शैया तैयार करने वाली बांदी एक रोज उस शैया पर लेट गई । तुरन्त गहरी निद्रा आ गई । बादशाह ने देखा तो हाथ में बेंत लेकर उसके जोर से मारा । बांदी तुरन्त खड़ी हो गई और हँसने लगी । बादशाह बोला - तूं हँसती क्यों है ? बांदी - मैंने इस सेज पर आधा घंटा शयन की होगी, उस पर मेरे एक बेंत पड़ी और जो इस सेज पर रोजाना सोते हैं और भोग भोगते हैं, उनके न मालूम कितनी बेंत पड़ेंगी ? इसलिए मुझे हँसी आ रही है । सुलतानशाह को तत्काल तीव्र वैराग्य हो गया और उसी समय राज को त्याग करके मालिक को याद करते हुए, एक हंडी और गुदड़ी हाथ में लेकर घूमते हुए दिल्ली में आ गए और एक भाड़ भूनने वाले के सामने खड़े हो गये । भाड़ भूनने वाला बोला, "कौन है ? कहाँ का है ? कहाँ रहता है ?" सुलतानशाह बोले - "जो हूँ तेरे सामने खड़ा हूँ, कहीं का नहीं हूँ, जहाँ ठहरा, वहीं का हूँ ।" "भाड़ झोंकेगा" ? शाह ने कहा - "हाँ, झोकूंगा ।" सेवक बनकर वह भाड़ झोंके और उसकी दुकान पर पड़ा रहे । भीतर ज्ञान और वैराग्य में मस्त बना रहे । एक ब्राह्मण को दुःखी देखकर बोला - "बलख बुखारा चला जा, तुझे एक हजार रूपया मिल जाएगा ।" लिख दिया कि इसको एक हजार रूपया दे देना । परन्तु मेरा पता नहीं बताना । ब्राह्मण वहाँ गया । शहजादा से मिला, पत्र दिया । शहजादा ने और सुल्तानशाह की बेगम ने ब्राह्मण को एक हजार की जगह दो हजार रुपया देकर सुलतानशाह का पता ले लिया । शहजादा अपनी माता के सहित दिल्ली घूमने आए । दिल्ली के बादशाह ने उनकी अगवानी की और पूर्वोक्त सब वृत्तान्त सुनाया । जिधर वह भाड़ झोंक रहा था, उधर ही हाथी की सवारी से आए । सुलतानशाह को देख कर बेगम बोली - 
जिन सिर एता भार, सो क्यूं झोंके भाड़ नै ।
(भार = बलख बुखारे की बादशाहत)
तब सुलतानशाह ने उधर देखा, अपनी गुदड़ी कंधे पर डाली, हंडी हाथ में उठाई और बोले - 
यातैं मरूं मैं भार, तातैं झोंकूं भाड़ नैं ।
(मैं भार = अहंकार से दबा) यह कह कर चल पड़े । ऐसे परमेश्वर के भक्त अपना दिल परमात्मा से लगाकर साबुत रहते हैं ।
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*दादू सारों सौं दिल तोरि कर, सांई सौं जोड़ै ।*
*सांई सेती जोड़ करि, काहे को तोड़ै ॥४२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! देवी - देव, भैरूं - भूत, कुल - कुटुम्ब, माया - प्रपंचों से मन को हटा कर परमात्मा मही मन को लयलीन करिये । और जब परमात्मा में लीन हो जावे, तो फिर मन को विषय - वासनाओं की ओर आसक्त न होने दें अर्थात् मन को परमात्मा में ही एक रस बनाकर रखें ॥४२॥ 
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*साहिब देवै राखणा, सेवक दिल चोरै ।*
*दादू सब धन साह का, भूला मन थोरै ॥४३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर ने जीवात्मा पर दया करके मनुष्य शरीर रूपी धरोहर, कहिए धन दिया है नाम का स्मरण क रने के लिए और यह कहा है कि मेरी दी हुई धरोहर का दुरुपयोग नहीं करना । इस मनुष्य शरीर को सफल बनाकर मेरे स्वरूप में आकर मिल जाना । परन्तु यह अज्ञानी मानव, परमेश्वर से दिल को चुराकर माया - प्रपंच, रिद्धि - सिद्धि, कुल - कुटुम्ब, स्त्री - पुत्र आदिक में आसक्त रहता है । हे अज्ञानी जीव ! जो परमात्मा का सच्चिदानन्द स्वरूप है, वही रूप तेरा है, परन्तु तूने प्रमादवश, माया के प्रलोभन में फँसकर अपने अपार स्वरूप को भूल गया है । अब अपने स्वस्वरूप को संभाल कर आनन्दमय हो जा ॥४३॥ 
गोद लियो सुत जेठ, सर्वस सौंप्यो तास को । 
करि मूढ़मति नेठ, थैली ले न्यारी धरी ॥ 
दृष्टान्त - एक वैश्य कुल की बाई ने अपने जेठ का लड़का गोद ले लिया और उसे अपनी सारी सम्पत्ति, तिजोरी वगैरा सौंप दी । उसने अलग थोड़ा काम किया, एक हजार रुपया नफा मिला । उस एक हजार रुपये की थैली को दूसरी अलमारी में रख दिया । एक रोज उस बाई ने अलमारी देखी, तो उसमें रुपया रखा है । पूछा - यह रुपया कैसा है ? बोला - मां, मैंने अलग काम किया है, उसके नफे का यह मेरा रुपया है । बाई ने सोचा, इसके भाग्य में तो एक हजार रुपया ही है, मैंने इसको लाखों की सम्पत्ति संभलवा दी । यह तो कुछ दिन में सब सम्पत्ति नष्ट कर देगा । बाई ने धीरे - धीरे तिजोरी वगैरा सम्पूर्ण सम्पत्ति अपने काबू में कर ली और एक हजार रुपया अपनी तरफ से और देकर बोली - इस दो हजार से अपना अलग काम करो । फिर वह मूढ़ पछताने लगा ।
वैसे ही दृष्टान्त में परमेश्वर ने इस जीव को मनुष्य - देह रूपी बड़ी पूंजी सँभलाई है । अज्ञानी जीव, इससे विषय - वासना रूपी तुच्छ सुख प्राप्त करके राजी होने लगा । तब फिर परमेश्वर ने मनुष्य देहरूपी धरोहर को छीन लिया । 
(क्रमशः)

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