गुरुवार, 31 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/४४-४६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
.
*पतिव्रत*
*दादू मनसा वाचा कर्मना, अंतर आवै एक ।*
*ताको प्रत्यक्ष राम जी, बातें और अनेक ॥४४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिन भक्तों की मन - वचन - कर्म से प्रभु में लय लगी है, उन भक्तों को परमेश्वर के स्वरूप का साक्षात्कार होता है, बाकी तो सब बातें करने वाले निरर्थक ही जन्म को गँवाते हैं ॥४४॥ 
.
*दादू मनसा वाचा कर्मना, हिरदै हरि का भाव ।*
*अलख पुरुष आगे खड़ा, ताके त्रिभुवन राव ॥४५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिन भक्तों के हृदय में मन - वचन - कर्म से प्रभु का स्मरण रहता है, उनके सन्मुख ही स्वयं परमेश्वर उनका कार्य करने को खड़े रहते हैं । ऐसे भक्तजनों को धन्य है ॥४५॥ 
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा 
बुद्धयात्मना वाSनुसृतस्वभावात् । 
करोति यद्यत्सकलं परस्मै 
नारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥ 
(भागवत - ११ - २ - ३६)
तन, मन, वचन, इन्द्रियों व बुद्धि से जो भी स्वाभाविक कर्म होते हैं, वे सब परमपुरुष नारायण भगवान् के अर्पण कर दो ।
ग्राम मीर खुशरो रहै, बाहिर और फकीर । 
ताको परचो ना भयो, मेह बरसायो मीर ॥ 
दृष्टान्त - एक गांव में मीर खुशरो रहते थे । वे ईश्वर के भक्त थे । अपना हार - श्रृंगार करके परमेश्वर को अपना पति मानते थे । एक रोज गांव के लोग वर्षा न होने से दुखी होकर, गांव के बाहर एक संत आये हुए थे, उनके पास गए और बोले - महाराज ! वर्षा नहीं होती है । क्या करें ? महात्मा बोले - मेरी तूंबी का जल है क्या जो बरसा दूँ ? सब लोग महात्मा को नमस्कार करके गांव की ओर आने लगे । रास्ते में मीर खुशरो मिले । इनको नमस्कार करके लोग बोले - आपने यह श्रृंगार किसके लिये किया ? मीर बोले - मेरे पति परमेश्वर के लिए । गाँव वाले बोले - आपके पति से पानी तो बरसवा दो । यह सुनकर मीर खुशरो अपने चूड़े पर हाथ रखकर बोले - "इस चूड़े की लाज रखना प्रभु !" यह बोलकर राग मेघ मल्हार गाई । तुरन्त पानी की भारी वर्षा होने लगी । जय - जयकार हो गया दुनिया में । जिसके हृदय में प्रभु का भाव होता है, उसके सामने ही प्रभु खड़े रहते हैं ।
.
*दादू मनसा वाचा कर्मना, हरि जी सौं हित होइ ।*
*साहिब सन्मुख संग है, आदि निरंजन सोइ ॥४६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो भक्तजन मन - कर्म - वचन से हृदय में प्रभु का भाव धारण करके परमेश्वर से प्रीति करें, तो उनके सन्मुख ही माया - प्रपंच का आदि कारण, आप स्वयं निरंजनदेव, उनके साथ लगे हुए रहते हैं । एक क्षण - भर भी प्रभु उस भक्त का त्याग नहीं करते हैं ॥४६॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें