गुरुवार, 31 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/४७-४९)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
.
*दादू मनसा वाचा कर्मणा, आतुर कारण राम ।*
*सम्रथ सांई सब करै, परगट पूरे काम ॥४७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! मन - वचन - कर्म से जो भक्त, प्रभु दर्शनों के लिए बिरह से व्याकुल रहते हैं, उन भक्तों के सन्मुख, समर्थ प्रभु प्रकट होकर सब काम पूर्ण करते हैं ॥४७॥ 
ये यथा मा प्रपद्यन्ते तान् तथैव यजाम्यहम् । 
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते । 
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ 
मेरे में जो स्थित रहै, करै निरंतर ध्यान । 
उन भक्तों के योग का, क्षेम स्वयं हि आन ॥ 
.
*नारी पुरुषा देख करि, पुरुषा नारी होइ ।*
*दादू सेवक राम का, शीलवन्त है सोइ ॥४८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अभिप्राय यह है कि पतिव्रता स्त्री, अपने पति के अतिरिक्त, दूसरे पुरुष को देखती है तो वह पुरुष उसको अपने समान स्त्री रूप ही दीखता है और अपने पति को ही पुरुष जानती है । ऐसे ही सच्चे परमेश्वर के पतिव्रत - धर्म को धारण करने वाले भक्त भी सम्पूर्ण स्त्री - पुरुषों व देवी - देवताओं को नि:संशय अपने समान प्रभु के दास(पुरुष) ही जानते हैं और वे नारी - पुरुष में अभेद रूप से "आतम सो परमात्मा" का ही भाव वर्तते हैं - "नारी पुरुष का नाम धर, इहि संशय भ्रम भुलान । सब घट एकै आतमा" जानते हैं और निष्काम भाव से पति परमेश्वर का पतिव्रत - धर्म धारण करने वाले भक्त भी एक निरंजन देव को ही अपना स्वामी जानते हैं ॥४८॥ 
विशेष - नौ द्वार के इस शरीर को जीवात्मा का "पुर" कहा जाता है, वह चाहे पुरुष का हो चाहे स्त्री का । उस पुर में शयन करने वाले जीव तत्व की संज्ञा पुरुष है, शरीर की नहीं ।
सुनकै बन्दी राबिया, जन चलि आये च्यार । 
शील एकता सब्रर सम, बीबी कही विचार ॥ 
दृष्टान्त - मुसलमानों में एक बन्दी राबिया नाम के भक्त हुए हैं । वह एक खुदा के पतिव्रत - धर्म में ही मस्त रहते थे और परमेश्वर को अपने हृदय में साक्षात्कार कर लिया था । चार देवता(शील, एकता, सब्र, सम) इनकी परीक्षा करने आये और बोले - हमको अपने हृदय में रखो । आप बोले - मेरे हृदय में तो एक परमेश्वर है और को जगह नहीं है । बीबी के पास चले जाओ । बीबी बोली - मेरा हृदय तो मियां आपसे पूर्ण हो रहा है, खाली नहीं है । चारों देवता राबिया के सामने नतमस्तक होकर बोले - आपको धन्य है, धन्य है । 
*आन लग्न व्यभिचार*
*पर पुरुषा रत बांझणी, जाणे जे फल होइ ।*
*जन्म बिगोवै आपना, दादू निष्फल सोइ ॥४९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो स्त्री आप तो बांझ है और अपने पति को नपुंसक समझकर पुत्र उत्पत्ति के लिये पर - पुरुषों से रति - सुख लेती है, तो भी पुत्र प्राप्त नहीं होता । पतिव्रत धर्म से विमुख होकर मानव - जीवन को व्यर्थ गँवाती है । इसी प्रकार परमार्थ पक्ष में ध्यान, धारणा, भक्ति, वैराग्य आदि के बिना नाना कामना रूप बांझपन को अपने में न जानकर और निरंजनदेव में असमर्थता का दोष अध्यास करके सकामी जिज्ञासुजन ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदिक देवी - देवताओं की ओर दौड़ते हैं, तथापि ज्ञान एवं मोक्षरूप फल की प्राप्ति के बिना ही मनुष्य के शरीर को वृथा ही गँवा देते हैं ॥४९॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें