॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू तज भरतार को, पर पुरुषा रत होइ ।*
*ऐसी सेवा सब करैं, राम न जाने सोइ ॥५०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो स्त्री, पतिव्रत - धर्म के महत्व को नहीं समझती है, वही अपने पति को त्यागकर पराये पुरुषों से रत होती है और पतिव्रत बिना उसकी सेवा और नर - तन निष्फल है । ऐसे ही यह जीवात्मा अपने आत्म - स्वरूप परमेश्वर को भूलकर नाना देवी - देवताओं की पूजा करता है, किन्तु ऐसे सेवक, राम शुद्ध निरंजनदेव को यथार्थ में नहीं जानेंगे अर्थात् उनकी पूजा राम स्वीकार नहीं करेंगे । उनका जीवन तो व्यर्थ ही जाता है ॥५०॥
न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा: ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:(गीता ७-१४)
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*पतिव्रत*
*नारी सेवक तब लगै, जब लग सांई पास ।*
*दादू परसै आन को, ताकी कैसी आस ॥५१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो पतिव्रता नारी है, वह सदैव पति की सेवा - परायण रहती है । इसी प्रकार राम का सेवक वही है, जो जब तक प्राण पिंड का संयोग है, तब तक प्रभु के स्मरण में ही लीन रहता है और जो अनेक भोग - वासना में फँसे हुए हैं, उनके जीवन सफल होने की क्या आशा है ?।५१॥
नारी को कर्तव्य यह, अपने भर्ता हेत ।
जो हित होवै सो करै, निशदिन होइ सचेत ॥
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*आन लगन व्यभिचार*
*दादू नारी पुरुष को, जाने जे वश होइ ।*
*पीव की सेवा ना करै, कामणिगारी सोइ ॥५२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे व्यवहार काल में कोई स्त्री पति की सेवा तो नहीं करती है और यह चाहती है कि पति मेरे काबू में हो जाए, तो वह नारी कामना के वश में होकर अनेक प्रकार के मंत्र - जंत्र, जादू - टोना, पति के ऊपर करती रहती है । वैसे ही सकामी जीव प्रभु की अनन्य भक्ति के बिना ही परमेश्वर के अनन्त ऐश्वर्य का अनुभव करना चाहता है, तो वह पुरुष भक्त नहीं है । नाना कामनाओं के वशीभूत होकर जंत्र, मंत्र, अनुष्ठान आदिक करता कराता है, परन्तु वे सब निष्फल हो जाते हैं ॥५२॥
हुरम जु गई फकीर पै, मुझ को जंतर देहु ।
होइ बादशाह मोर वश, साखी लिख दई लेहु ॥
दृष्टान्त - एक बादशाह की हुरम, बादशाह को वश में करने के लिए एक फकीर के पास गई और बोली - "ऐसा कोई ताबिज बना दो, जिससे बादशाह मेरे काबू में आ जाय ।" सांई ने जंत्र बनाकर भुजा के बाँध दिया और बोले - "बादशाह जब तुम्हारे यहाँ आवे, तो तन - मन से उनको प्रणाम करना और प्रेम से सब प्रकार की सेवा करना । इस जंत्र की यह साधना है । यह करती रहोगी, तो बादशाह तुम्हारे वश में हो जाएगा ।" एक रोज बादशाह उसकी परीक्षा लेने को आ गया । वह बादशाहजादी उपरोक्त प्रकार से सेवा करने लगी । बादशाह उसकी सेवा के वशीभूत होकर उसी के महल में रहने लगे । फिर एक रोज बादशाह बोला - तुमने तो मुझे अब वश में ही कर लिया ? वह बोली - ऐसे वश में कहाँ होने वाले थे ? इस जंत्र ने आपको वश में किया है । बादशाह ने जंत्र की छाप उखाड़ कर कागज निकाला, उसमें लिखा था -
टामण टूमण हे सखी, भूलि करो मति कोइ ।
पीव कहै त्यौं कीजिये, आपै ही बस होइ ॥
बादशाह बोले - "यह किसने जंत्र बनाकर दिया है ?" "अमुक फकीर ने ।" बादशाह और बादशाहजादी, दोनों ने जाकर फकीर के दर्शन किये और बादशाह बोला - यह शक्ति संतों में ही होती है, जो बहिर्मुख जीव को अन्तर्मुख करके आपस में प्रेम बढ़ा देते हैं । दृष्टान्त में, ब्रह्मनिष्ठ गुरु इसी प्रकार उत्तम शिष्यों को परमात्मा के सन्मुख कर देते हैं ।
(क्रमशः)
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