॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*करुणा*
*कीया मन का भावता, मेटी आज्ञाकार ।*
*क्या ले मुख दिखलाइये, दादू उस भर्तार ॥५३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर के हुक्म और कसौटी को मेटकर इस बहिर्मुख जीव ने अपने को प्रिय लगने वाले ही नाना कर्म किये हैं । भाव - भक्ति से विमुख होकर यह जीव अब प्रभु को कैसे मुख दिखलावेगा ? क्योंकि ईश्वर - विमुख प्राणियों का मनुष्य जन्म व्यर्थ ही जाता है ॥५३॥
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*आन लग्न व्यभिचार*
*करामात कलंक है, जाकै हिरदै एक ।*
*अति आनन्द व्यभिचारिणी, जाके खसम अनेक ॥५४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ईश्वर के भक्तों के केवल एक ईश्वर का ही पतिव्रत है । उनको मायावी भोग - पदार्थों और नाना चमत्कार आदि ईश्वर भक्ति में अन्तराय रूप से प्रतीत होते हैं । परन्तु जो विषयों में आसक्ति वाले पुरुष हैं, उनको अनेक धन आदि की इच्छा से नाना देवी, देव, भैरूं, भूत आदि का इष्ट है । उनको मायावी करामातों से अति आनन्द होता है ॥५४॥
"ते समाधांधुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धय: ।"
(सिद्धियाँविघ्न स्वरूप है ।)
साधु एक तिय सौं कही, तो पति परसौं आइ ।
आयो उत्सव देख करि, घोड़ी पेट चिराइ ॥
दृष्टान्त - एक राजपूत बाई थी । उसका पति विदेश में गया था । उसकी कोई चिट्ठी वगैरा नहीं आई । बाई को मन में चिंता रहती थी । एक संत रोज भिक्षा लेने नगर में आते थे । बाई ने उनसे पूछा - "महाराज ! मेरे पतिदेव कब आवेंगे ?" संत ने कहा - "परसों ।" बाई को संत - वचन में दृढ़ विश्वास था । उसको निश्चय हो गया कि पति तो परसों जरूर आयेंगे । उसने पति के आगमन में घर की सफाई और सजावट की । फिर आप स्नान कर अनेक प्रकार के भूषण, वस्त्र धारण कर लिये । अंजन, मंजन वगैरा सब श्रृंगार किया और उस रोज मीठे व्यंजन वगैरा बनाए और पति की बैठी - बैठी इन्तजार कर रही थी । पतिदेव आ ही पहुँचे, बोले, "यह हार - श्रृंगार किसके ऊपर किया ?" वह कहने लगी - "आपके ऊपर ही किया है ।" "मेरा तुम्हें क्या पता ?" वह बोली - "मैंने संतों से पूछा था, ये बोले, परसों आवेगा ।" संत की तरफ उस ने देखा और बोला - "तुम ऐसे वचनसिद्ध हो तो बताओ, यह मेरी घोड़ी है, इसके बछेरा होगा या बछेरी ? झूँठ हुआ तो पहले इस स्त्री का सिर काटूँगा, फिर तेरा काटूँगा और फिर अपना भी काट लूंगा ।" महात्मा घबरा गए । मन में सोचा कि नहीं कहते तो अच्छा था । हे ईश्वर ! आप कृपा करो । तब परमेश्वर की प्रेरणा से संत बोले - "इसके बछेरा होगा ।" उसने नंगी तलवार दोनों हाथों से घोड़ी की पीठ में मारी कि घोड़ी के दो टुकड़े हो गए । घोड़ी के गर्भ में बछेरा देखा, तो एकदम तलवार डालकर महात्मा को नमस्कार करने लगा । बोला - "मेरा अपराध क्षमा करें ।" संत ने परमेश्वर से प्रार्थना की "हे नाथ ! यह करामात का कलंक मेरे पल्ले बँधा । दो जीवों की हिंसा हुई । आप ही मेरे इस अपराध को क्षमा करना ।"
इसी से ब्रह्मऋषि परम गुरुदेव कहते हैं कि परमेश्वर का पतिव्रत धारण करने वाले संतों के लिए करामात कलंक है, परन्तु व्यभिचारी लोग ही अपनी प्रतिष्ठा व स्वार्थसाधन के लिये करामात का सहारा लिया करते हैं ।
भोज मंगायो वृक्ष हित, पतिव्रता को क्षीर ।
गयो राव घर पूछियो, एक घटै, धरि धीर ॥१॥
दिग्विजय राजा गयो, छाया बैठो आइ ।
राघो कर्म संजोग से, पीपल सूक्यो जाइ ॥२॥
सर्व सभा ही सूं कही, राघो नृप नै चाव ।
धरती पर धर्मात्मा, हर्यो करै कोइ आव ॥३॥
पंडित प्रधान ने कियो, राघो यह विचार ।
पतिव्रता के क्षीर से, हर्यो होत, नहीं बार ॥४॥
राघो नृप तोली सभा, बरत्त राणों राणि ।
जाके पतिव्रता ह्वै बधू, सोई सो ल्यों जाणि ॥५॥
राघो रावत नै लियो, बीड़ो खुसी खँखारि ।
सभा माहीं बदकर चल्यो, मो पतिव्रता नारि ॥ ६ ॥
राघो देखी बाट में, बच्छा चरावत नारि ।
"राज सभा से क्यों चले, रावत ! कहो विचारि ॥७॥
जन राघो रावत कही, "मो घरनी की रीत ।
पीपल छूवत ह्वै हर्यो, सब को ह्वै परतीत" ॥८॥
जन राघो बाई कह्यो, "नारी न्याव न देख ।
तूं रावत भोलो भयो, नहीं जो घर को भेद" ॥९॥
बाई रावत सूं कही, राघो मन मैं हीस ।
"पीपल छूवत ह्वै हर्यो, जाके पति ह्वैं बीस" ॥१०॥
राघो रावत घर कही, सारी बात जो हीस ।
"कंत ! चिंत तुम मत करो, मो पति हैं उन्नीस" ॥११॥
इतनी सुनी रावत भग्यो, पगन पर्यो यूं भाखि ।
"तू तो बहना धर्म की, जो पत्त रहै तो राखि" ॥१२॥
"बीर बहन होकर चल्यौ, साक्षी तहाँ करतार ।
राघो पीपल पांघर्यो, सूखी रही इक डार ॥१३॥
पतिव्रता परब्रह्म से, करी बीनती येह ।
राघो "पति बिन और की, मैं नहीं परसी देह ॥१४॥
गोद लियो जेठूत सुत, कीजे नाथ निहार" ।
राघो हरि करुणा सुनी, ज्यों की त्यों भई डार ॥१५॥
सांच कहत सबके भिदी, अरु रीझे करतार ।
राघो नृप पांवां पर्यो, सकल सभा जयकार ॥१६॥
दृष्टान्त - एक रोज राजा भोज दिग्विजय करने को चला । जंगल में पीपल के वृक्ष के नीचे जा कर सब लोग ठहरे । राजा के देखते - देखते ही वह पीपल एक दम सूख गया । राजा ने वहीं पर विद्वानों से पूछा - "यह पीपल किस प्रकार हरा हो ?" विद्वानों ने कहा, "पतिव्रता स्त्री के दूध की धार से यह हरा हो जाएगा ।" राजा ने सभा में पान का बीड़ा रखा । "जिसके पतिव्रता स्त्री हो, वह बीड़ा चबा ले ।" एक राव राजा ने उसको उठाकर तीन खकारे करे और बीड़ा चबा लिया । अपनी रानी से लेने चला । रास्ते में एक काश्तकार की लड़की बछड़े चरा रही थी । राजा से पूछा "सभा से कैसे आ गए ?" राजा ने पूर्वोक्त वृत्तान्त लड़की से कहा । लड़की बोली - आपको अपने घर का पता नहीं है । आप जाकर अपनी स्त्री को बोलना कि "जिस स्त्री के बीस पति हों, वह दूध की धार मारे, तो पीपल हरा हो जाय । मैं अब वह स्त्री कहाँ से लाऊँ ?" बाई ने बतलाया, वैसे ही राव राजा घर जाकर बोला । राव की स्त्री बोली कि "मेरे उन्नीस पति हैं, अब एक और कर आती हूँ । आपका काम मैं सिद्ध कर दूँगी ।" राव यह सुनकर वापिस भागा और उस बाई के चरणों में आ पड़ा । राव बोला - "तूं मेरी धर्म की बहन है, सभा में मेरी बात रख ।" बहन - भाई दोनों बनकर चले । परमेश्वर इसके साक्षी हैं । सभा में पहुँचे । महाराज भोज बोले - यह कौन है ? "यह मेरी बहन है । यही पीपल को हरा कर देगी ।" उसने जो अपनी चोली में से स्तन निकाल कर धार मारी पीपल के, तो पीपल एक दम हरा हो गया । ऊपर एक डाली सूखी रह गई । राजा भोज ने पूछा - "क्या बाई ! आपका कभी पतिव्रत - धर्म खंडित हो गया था ?" बाई - "नहीं ।" परब्रह्म से बाई ने विनती की, "जेठ के पुत्र को गोदी में लिया था, तब उस बच्चे ने मेरे ऊपर पेशाब किया, वह मेरे बदन के ऊपर से बह गया । हे परमेश्वर ! आप इस बात के साक्षी हो । मैंने अपने पति के सिवाय, दूसरे पुरुष के शरीर का स्पर्श नहीं किया हैं । मैं मेरे सत पर हूँ, तो यह पीपल की डाली हरी हो जाये ।" वह भी हरी हो गई । राजा भोज ने खड़े होकर पतिव्रता के चरणों में नमस्कार किया और पूजा की । सारी सभा ने बाई की पूजा की और पतिव्रत - धर्म की जय जयकार सभा में होने लगी ।
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*दादू पतिव्रता के एक है, व्यभिचारिणी के दोइ ।*
*पतिव्रता व्यभिचारिणी, मेला क्यों कर होइ ॥५५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! पतिव्रता स्त्री को उसका पति ही एक पुरुष दिखलाई पड़ता है और व्यभिचारणी को दो । जैसे पति पुरुष है, ऐसे अन्य को भी पुरुष जानती है । तो पतिव्रता के धर्म और व्यभिचारिणी के धर्म की एकता नहीं होती । दृष्टांत में, परमेश्वर के अनन्य भक्तों को एक प्रभु का ही पतिव्रत है और ब्रह्मज्ञानी मुक्तजनों की समस्त संसार में एकत्व ब्रह्म - बुद्धि ही बनी रहती है । किसी भी अन्य पदार्थों को वह सत्य नहीं मानता है । इसके विपरीत जो व्यभिचारी व्यक्ति है, वह अनेक देवी - देवताओं और उनके अनुष्ठान आदि के करने वाले उपासक को द्वैतभाव प्रतीत होता है ॥५५॥
व्यभिचारिणी यों कहत है, मेरा पीव का गात ।
पतिव्रता यों कहत है, तेरी छाती लात ॥
व्यभिचारिणी यों कहत है, मेरा पीव है पाक ।
पतिव्रता यों कहत है, काटूं तेरा नाक ॥
सूया अनसूया बहन दो, इक काशी अन्य ग्राम ।
घर राख्यौ, रवि रथ थक्यौ, पतिव्रत के बल राम ॥
दृष्टान्त - १ - अत्रि मुनि की धर्मपत्नी महान् पतिव्रता माता अनसूया जी थीं । उनके पतिव्रत की परीक्षा ब्रह्मा, विष्णु, महेश करने आये । परन्तु वे उनके पतिव्रत के सामने नतमस्तक हो गये और उन तीनों को उनका पुत्र बनना पड़ा.... । अनसूया जी की बहन काशी में निवास करती थी । उनके घर एक तपस्वी आये और बोले - "माता जल पिलाओ ।" वह बोली - "महाराज ठहरो ! भोजन भी लाती हूँ और जल भी लाती हूँ, परन्तु मैं पहले अपने पतिदेव को जल का गिलास दे आऊं ।" साधु के मन में अहंता आ गई कि मैं तपस्वी और मुझे यह बोलती है, ठहरो । तब अन्दर से पतिव्रता बाई ने आवाज दी कि "महाराज ! यहाँ चिड़िया नहीं हैं, जो भस्म हो जाएँगी ।" यह सुनकर साधु चकित हो गया । वह सोचने लगा कि इसे चिड़ियाओं का कैसे पता लगा ? जब तपस्वी पहले तपस्या कर रहा था, तो दो चिड़ियां पेड़ पर आकर बोलने लगी थीं । यह क्रोध की दृष्टि से झांका तो वे चिड़ियाँ भस्म होकर नीचे गिर गई थीं । वही बात पतिव्रता देवी ने उसको याद दिलाई । रोटी और जल लेकर आई बोली - लो महाराज, यह रोटी लो और यह जल लो । तपस्वी बोले - बाई ! उन चिड़ियाओं का तुझे कैसे पता लगा ? बाई बोली - "जल्दी पकड़ो रोटी ।" रोटी देकर बाई ने मकान के चारों तरफ पानी की कार खेंच दी । तपस्वी बोले - बाई ! यह और क्या किया ? पतिव्रता बोली - "आपने रोटी लेने में देर लगा दी । अमुक गांव में आग लग गई । वहाँ मेरी बहन भी रहती है । आप जल्दी रोटी लेते, तो मैं सारे गांव को बचा लेती, पर फिर भी मैंने अपनी बहन का घर तो बचा ही लिया ।" यह सुनकर तपस्वी और भी विस्मित हो गए और बोले - यह मैं कैसे जानूं कि आपने घर बचा लिया ? बाई बोली - जाकर देखो । तपस्वी चले । उस गांव में पहुँचे तो देखा, सब गांव जला पड़ा है । एक घर नहीं जला । उस घर वाली बाई से पूछा - आपका घर कैसे बच गया ? बाई बोली - "काशी में मेरी बहन रहती है, उसके घर कोई साधु आया था, उसने रोटी लेने में देर कर दी । नहीं तो मेरी बहन सारे गांव को बचा लेती । फिर भी मेरा घर तो बचा ही लिया ।" तपस्वी मन में सोचने लगे - यह क्या लीला है ईश्वर की ? तपस्वी बोले - बाई ! यह आप लोगों में शक्ति किस प्रकार आ जाती है, जो दूर देश की बात आप जान लेती हो ? पतिव्रता - मेरी बहन से ही जाकर पूछो ? काशी आया और तपस्वी कहने लगे - बाई ! वह सब बात सत्य है । परन्तु आप यह बतलाओ, आपमें यह शक्ति किस प्रकार आ जाती है ? बाई बोली - हे तपोधन ! हमारा पति परमेश्वर है । निष्कपट, निरहंकार होकर हम लोग उसके चैतन्य स्वरूप की उपासना करती हैं और स्थूल शरीर की सेवा करती हैं । इसी से हमारे में यह शक्ति आ जाती है । आपका पति परमेश्वर है, आप भी उस चैतन्य स्वरूप परमात्मा की उपासना करिये और निष्कपट निरहंकार होकर अपनी मन इन्द्रियों को एकाग्र करें, पति के स्वरूप में तो फिर आपकी भी ऐसी शक्ति हो जाएगी । तपस्वी, पतिव्रता देवी के सामने नतमस्तक हो गए ।
दृष्टान्त - २ - एक सांड़ली नाम की पतिव्रता देवी ब्राह्मण कुल में थी । उसके पति बहुत निष्ठुर स्वभाव के थे और रोगी भी हो गए थे । पांव से अपंग भी थे । वह उनको अपनी पीठ पर लेकर रोज प्रातःकाल गंगा स्नान को जाया करती थी । एक रोज एक ऋषि गंगा स्नान करके आ रहे थे और यह पति को लिए जा रही थी । अंधेरा होने के कारण उसके पति का पांव ऋषि के बदन से छू गया । तपस्वी बोले - कौन है ? पतिव्रता बोली - मैं हूँ, जिसका पति रोगी है । तपस्वी बोला - "सूर्य निकलते ही तेरा पति मर जाएगा" । ब्राह्मणी ने एक मिनट मौन होकर सोचा कि पति मर जाएगा तो मैं क्या करूँ गी ? तत्काल बोल उठी कि सूर्य उदय नहीं होगा । अब सूर्य उदय नहीं हो रहा है, तीन रोज बीत गए । दुनियां में हाहाकार होने लगा । ब्रह्मा, विष्णु आदि प्रगट हो गए, बोले - "हे बाई ! आप सूर्य को आज्ञा दो, जिससे सूर्य उदय होवे । "ऋषि अपने शब्द को लेवें, तो मैं भी सूर्य को आज्ञा दूँगी," ऋषि से कहा । तपस्वी बोला - "जो कुछ हमने कह दिया, सो ठीक है ।" तब अनसूया महारानी आई और बोली - बहन ! तूं सूर्य को आज्ञा दे दे उदय होने की । तब सांडली ने कहा - "बहन, मेरा पति मर जाएगा, तो मैं क्या करूँगी ?" अनसूया देवी बोली - "तुम्हारे पति को मैं जिन्दा कर दूँगी ।" तब पतिव्रता ने आज्ञा दी कि सूर्य नारायण उदय हो जावो । सूर्य भगवान् के उदय होते ही उसके पति की मृत्यु हो गई । अनसूया माता ने अपने पतिव्रत के बल से उसको जीवित कर दिया और शरीर का कल्प भी करवा कर महान् दिव्यरूप बना दिया ।
सोई परम गुरुदेव उपदेश करते हैं कि पतिव्रताओं के एक उनका पति ही उनके जीवन का आधार है । उसी की सेवा से, अपने धर्म - प्रभाव से, उनमें अनेक प्रकार की शक्तियाँ देखने में आई हैं ।
(क्रमशः)
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