शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/५६-५८)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*पतिव्रता के एक है, दूजा नांही आन ।*
*व्यभिचारिणी के दोइ हैं, पर घर एक समान ॥५६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे पतिव्रता स्त्री के एक पति ही है, वैसे ही ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी की भावना में एकत्व है और मायिक कार्य अध्यस्त(कल्पित) हैं । जैसे व्यभिचारिणी को अपना और पराया घर वर एक समान होता है, इसी तरह संसारीजन काम्य कर्म और संसार को भी आत्मा की भांति सत्यरूप मानकर तद्नुरूप ही व्यवहार करते हैं । इस प्रकार द्वैतवादी संसारीजन मानव - जीवन को वृथा गँवाते हैं ॥५६॥ 
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*सुन्दरी सुहाग*
*दादू पुरुष हमारा एक है, हम नारी बहु अंग ।*
*जे जे जैसी ताहि सौं, खेलें तिस हि रंग ॥५७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! भक्तजनों का एक हरि ही स्वामी है । सब नाना शरीर धारी भक्त अपनी सुरति को इसी के स्वरूप में व्यापक चैतन्य में ही लगा कर रखते हैं । योग द्वारा, भक्तिद्वारा, ज्ञान द्वारा, सगुण रूप में, निर्गुण रूप में, जिन की जिस रूप में जैसी स्थिति है, उसके अनुसार ही वे प्रभु के स्वरूप में अपनी लय लगाये रहते हैं और प्रेमरूपी रस का पान करते हुए प्रभु के साथ क्रीड़ा करते हैं ॥५७॥ 
"दे यथा मां प्रपद्ययन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्"(गीता)
आदि पुरुष परमात्मा, हम सब उनकी नार । 
ज्ञानीजन हरि एक है, करता सिरजनहार ॥ 
*पतिव्रत*
*दादू रहता राखिये, बहता देइ बहाइ ।*
*बहते संग न जाइये, रहते सौं ल्यौ लाइ ॥५८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण गुण और विकार से रहित जो परमेश्वर का स्वरूप है, उसमें अपनी चित्त की वृत्ति को स्थिर करो । माया और माया का कार्य - प्रपंच, उसको विचार से त्यागिये तथा बहते संग आने - जाने वाली माया के साथ प्रीति नहीं करना, गुण - विकारों में प्रवृत्त नहीं होना । इन सब से रहित जो तीन काल में जिसका बाध्य नहीं होता है, उसी परमेश्वर में लय लगाकर स्थिर रहना ॥५८॥ 
छन्द - 
रहता करता, हरता हरि है, 
कर देख विचार रहै जिगियासी । 
बहता विष है विषिया तज रे, 
सज रे सुख शुद्ध सनातन वासी ॥ 
गहि ताहि सदा सुखरूप प्रभू, 
परब्रह्म परातम है सुखरासी । 
सिस आपको जानत पाप जरे, 
जप जाप हरी अज है अविनासी ॥ 
होइ अनन्य भजै भगवंत हि, 
और कछु उर में नहिं राखै । 
देवी रु देव जहाँ लग हैं, 
डर के तिन सूं बहु दीन न भाखै ॥ 
योग हु यज्ञ व्रतादि क्रिया, 
तिनकूं तो नहीं स्वप्ने अभिलाखै । 
सुन्दर अमृत पान कियो तब, 
तो कहु कौन हलाहल चाखै ॥ 
(क्रमशः)

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