॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मन का अंग १० =*
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*सोई शूर जे मन गहै, निमख न चलने देइ ।*
*जब ही दादू पग भरै, तब ही पकड़ि लेइ ॥७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! वही शूरवीर पुरुष है, जो इस मन को विषयों की तरफ से रोक लेता है । जब यह सांसारिक भोगों की तरफ संकल्परूपी पांव उठावे, उसी समय इसको "पकडि ले" कहिए संकल्प का दमन कर दे ॥७॥
एक कन्या यह नेम लियो, मो परणै ह्वै सूर ।
सिंह हन्यौ गज अरि हन्यौ, तिय तज भाज्यो दूर ॥
दृष्टांत - एक राज - कन्या ने नेम लिया कि मैं शादी उसके साथ करूँगी, जो शूरवीर होगा । अर्थात् सिंह को बिना हथियार के मार देगा और हाथी के बिना हथियार के दाँत उखाड़ देगा । राजा ने विज्ञापन निकाले कि ऐसा बली राजकुमार हो, वह आवे, उसके साथ मेरी राज - कन्या विवाह करेगी । कई राजकुमार आये और एक चार दीवारी में मस्त हाथी छोड़ रखा था, वहीं शेर का पिंजरा भी रखा हुआ था । इस लीला को देख - देखकर लोग चकित हो रहे थे । एक महापुरुष भी आ निकले । उन्होंने पूछा - यहाँ क्या हो रहा है ? किसी ने कहा - "यहाँ शूरवीरता देखी जाती है ।" महात्मा उपरोक्त वृत्तान्त सुनकर चार दीवारी में घुसे और ज्योंही हाथी उनके ऊपर आया, त्योंही उछलकर महात्मा ने सूंड पकड़ी, एक मरोड़ी लगाई । हाथी धड़ाम से गिरा । उसके दाँत पकड़ पकड़ कर, खैंच कर डाल दिये । बोले - "शेर को भी निकालो ।" शेर महात्मा के ऊपर झपटा । महात्मा ने बैठक लगाई । शेर के पीछे के पाँव पकड़ कर और घूमाकर सिला पर पटका । शेर की जान निकल गई । उसको भी उठा कर डाल दिया । राजा के सहित सब लोग धन्य - धन्य के नारे लगाने लगे । तब राज - कन्या दोनों हाथों में वरमाला लेकर सामने पहराने आई । महात्मा बोले - "यह कौन है ?" लोगों ने कहा - यह लीला इसी ने रचाई है कि मैं ऐसे शूरवीर के साथ ही शादी करूँगी । महात्मा बोले - "भाई ! यह काम तो नहीं होगा ।" इतना कहकर चलने लगे, तब राज - कन्या बोली -
सिंह बिडारण हो बली, अरु तोड़न गज दंत ।
काम कटक तैं मुड़ि चले, ऐसे कायर कंत ॥
संत बोले - इधर से तो हम कायर ही हैं । पर अब हम काम - कटक(सेना) को भी जीतेंगे, ऐसा कहकर तपस्या करने वन में चले गये और बाई की इच्छा पूर्ण हो गई । क्योंकि वह आजन्म ब्रह्मचारिणी रहना चाहती थी । किन्तु माता - पिता के आग्रह पर उसने उक्त प्रतिज्ञा की थी । भगवान् ने उसकी इच्छा पूर्ण कर दी । बाई भी आजन्म प्रभु का भजन करके प्रभु को प्राप्त हो गई । दोनों ने अपने मन को दृढ़ता से पकड़कर रखा था । तभी कहा है - "सोई शूर जो मन गहै ।"
मनहर छन्द
महामत्त हाथी मन राख्यौ है पकरि जिन,
अति ही प्रचंड़ जामैं गरब गुमान है ।
काम क्रोध लोभ मोह बाँधे चारौं पाँव पुनि,
छूटनै न पावै नेक प्राण पीलवान है ॥
कबहूँ जो करै जोर सावधान सांझ भोर,
सदा इक हाथ में अंकुस गुरु ज्ञान है ।
सुन्दर कहत और काहू के न बसि होइ,
ऐसो कौन सूरवीर साधु के समान है ॥
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*जेती लहर समंद की, ते ते मनहि मनोरथ मार ।*
*बैसे सब संतोंष कर, गहि आत्म एक विचार ॥८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे समुद्र की तरंग अपार हैं, वैसे ही मन के मनोरथ रूप तरंगें भी अनन्त हैं । उन सब को दबाकर जो पुरुष संतोंष को धारण करके एक आत्म - विचार में ही राति = रत्त और माते = मतवाले रहते हैं, वे ही उत्तम पुरुष हैं । आत्म - विचार ही मन को रोकने का श्रेष्ठ साधन है ॥८॥
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*दादू जे मुख मांहीं बोलतां, श्रवणहुँ सुनतां आइ ।*
*नैनहुँ मांहैं देखतां, सो अंतर उरझाइ ॥९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो कुछ मुख से बोला जाता है, कानों से सुना जाता है और नेत्रों से देखा जाता है, उसके सूक्ष्म संस्कार हृदय में पड़ते हैं । जिससे यह मनीराम चलायमान होता है । इसलिये इन्द्रियों का विषयों के साथ कभी सम्बन्ध न होने दो और इनको आत्म - परायण बनाओ । ऐसा पुरुष ही सर्वश्रेष्ठ होता है ॥९॥
(क्रमशः)
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