मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

= मन का अंग १० =(१०/१२)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*दादू चुम्बक देख कर, लोहा लागै आइ ।*
*यों मन गुण इन्द्री एक सौं, दादू लीजै लाइ ॥१०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे चुम्बक पत्थर के समीप पड़े लोहे को चुम्बक खींच लेता है । इसी प्रकार अपने मन और पांचों ज्ञानेन्द्रियों को चुम्बक रूप आत्म - विचार के सन्मुख करो, तब सतगुरु उपदेश द्वारा परमेश्वर रूप चुम्बक, आत्मा मन इन्द्रियों को अपने स्वरूप में लगा लेता है ॥१०॥ 
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*मन का आसन जे जीव जानै, तौ ठौर ठौर सब सूझै ।*
*पंचों आनि एक घर राखै, तब अगम निगम सब बूझै ॥११॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! मन का आसन, गर्भ आसन, उपजन आसन, सत्संग आसन, ब्रह्म आसन, जब जीव मन का देखे, तो मन की स्थिति प्रतीत होने लगती है कि वह कौनसे आसन पर है ? जब ब्रह्म आसन पर स्थिति होती है, तो आगम = शास्त्र और निगम = वेद जिसका वर्णन करते हैं, वह आत्म स्वरूप ब्रह्म मन को सर्वत्र भान होने लगता है ।
जसवंत नृप प्रश्न कियो, आसण आच्छ्यो कौन । 
दास नारायणजी कही, गुरु दादू कहै जौन ॥ 
दृष्टांत - जोधपुर के राजा जसवंतसिंह जी ने श्री दादूजी के पौत्र शिष्य और घड़सीदासजी के शिष्य महाराज नारायणदास जी से प्रश्न किया कि मन को स्थिर करने के लिए कौनसा आसन अच्छा है, गुरुदेव ? नारायण दास जी बोले - उपरोक्त साखी में जो ब्रह्मऋषि गुरुदेव ने बताया, वही आसन अच्छा है । मन का आश्रय रुप आसन आत्मस्वरूप ब्रह्म है, उस ब्रह्म को जो जान जाता है, उसे प्रत्येक वस्तु में ब्रह्म ही भासने लगता है । अत: यह आसन ही सर्वश्रेष्ठ है ॥११॥ 
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*बैठे सदा एक रस पीवै, निवैरी कत झूझै ।*
*आत्मराम मिलै जब दादू, तब अंग न लागै दूजै ॥१२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! समस्त जगत को ब्रह्म रूप से जानने वाले उत्तम पुरुष आत्मस्वरूप आनन्द में स्थिर रहकर एक रस होते हैं । फिर वे राग, द्वेष आदि से रहित हो जाते हैं । ऐसे पुरुष संसार के भय, त्रास आदि बन्धनों से भी मुक्त होते हैं । ब्रह्मऋषि सतगुरु उपदेश करते हैं कि जब व्यष्टि चैतन्य को, समष्टि चैतन्य रूप राम का साक्षात्कार होता है, तो फिर जीव की मिथ्या मायिक पदार्थों में आसक्ति नहीं रहती है ॥१२॥ 
(क्रमशः)

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