गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/८८-९०)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*राम रसिक वांछै नहीं, परम पदारथ चार ।*
*अठ सिधि नव निधि का करै, राता सिरजनहार ॥८८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अनन्यतम उत्तम भक्तजन उपर्युक्त चारों मुक्तियों को भी नहीं चाहते हैं और अष्ट सिद्धि एवं नौ निधि का तो कहना ही क्या है ? इनकी तो इच्छा ही नहीं करते । इस प्रकार पूर्ण निष्काम - भाव होकर एक प्रभु के पतिव्रत में ही रत रहते हैं और कामना का भाव ही विलय हो जाता है ॥८८॥ 
छन्द - 
जल को सनेही मीन बिछुरत तजै प्रान, 
मणि बिनु अहि जैसे जीवत न लहिये ।
स्वाति बिंदु को सनेही प्रगट जगत मांहि, 
एक सीप दूसरो सु चातक हु कहिये ।
रवि को सनेही पुनि कमल सरोवर में, 
शशि को सनेही सु चकोर जैसे रहिये ।
तैसे ही "सुन्दर" एक प्रभु से सनेह जोर, 
और कछु देखि काहु और नहीं बहिये ॥ 
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*आन लग्न व्यभिचार*
*स्वारथ सेवा कीजिये, ताथैं भला न होइ ।*
*दादू ऊसर बाहि कर, कोठा भरै न कोइ ॥८९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे ऊसर(कालर) भूमि के बोने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता अर्थात् धान पैदा नहीं होता है । वैसे ही परमेश्वर की सकाम भक्ति करने से आत्म - कल्याण सम्भव नहीं है और न कोई देवी - देवताओं की आराधना से ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है । इसलिए उत्तम जिज्ञासु के लिए ये सब त्याज्य हैं ॥८९॥ 
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*सुत वित मांगैं बावरे, साहिब सी निधि मेलि ।*
*दादू वे निष्फल गये, जैसे नागर बेलि ॥ ९०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर जैसी अपूर्व निधि को त्यागकर मूर्ख लोग पुत्र, धन, स्वर्ग आदि की याचना करते हैं, परन्तु नागर बेल के जैसे फल नहीं लगते, वैसे ही वे मोक्ष रूप फल से शून्य रहते हैं ॥९०॥ 
(क्रमशः)

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