*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*घट अजरावर ह्वै रहै, बन्धन नांही कोइ ।*
*मुक्ता चौरासी मिटै, दादू संशय सोइ ॥८६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह घट शरीर अजर - अमर हो जाय, जैसे भरथरी और गोपीचन्द आदि का हो गया । ये सभी माया - बन्धन हैं और चौरासी के दुःख मिट जावें, मुक्त हो जावें, ये सभी कामनारूप संशय हैं । परन्तु परमेश्वर के सच्चे पतिव्रत - धर्म को धारण करनेवाले भक्तों में तो यह कोई भी वासना रूप बन्धन नहीं होता । वे तो परमेश्वर के शुद्ध प्रेम का प्याला ही पान करते हैं ॥८६॥
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*लाँबि रस*
*निकटि निरंजन लाग रहु, जब लग अलख अभेव ।*
*दादू पीवै राम रस, निहकामी निज सेव ॥८६-क॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब तक ब्रह्म में मिलकर वृत्ति एकरूप न हो जावे, तब तक एकत्व का अभ्यास निरंजन देव में करते रहो । इस प्रकार पूर्ण निष्काम भाव से निरंजन राम के परायण होकर अखंड राम - रस पान कीजिए ॥८६-क॥
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*परिचय पतिव्रत*
*सालोक्य संगति रहै, सामीप्य सन्मुख सोइ ।*
*सारूप्य सारीखा भया, सायुज्य एकै होइ ॥८७॥*
टीका -(१) सालोक - ईश्वर के साथ वास होवे ।(२) सामीप्य - जिसमें प्रभु सन्मुख रहे ।(३) सारूप्य - जिसमें ईश्वर के सदृश्य होवे ।(४) सायुज्य - ईश्वर में ही लय हो जावे ॥८७॥
परन्तु इनके विषय में दार्शनिकों के भिन्न - भिन्न विचार हैं, जैसे - सांख्य शास्त्र वाले आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक भेद से, भिन्न - भिन्न त्रिविध दुःखों के अत्यन्त अभाव को मुक्ति मानते हैं और प्रकृति व पुरुष के विवेक ज्ञान को उसमें कारण बतलाते हैं । योग दर्शन वाले, भोग व अपवर्गरूप पुरुषार्थ से शून्य गुणों का अपने कारणभूत प्रकृति में लय होना तथा चित्त शक्ति का अपने स्वरूप मप्रतिष्ठित होना ही मुक्ति है, ऐसा कहते हैं । वैशेषिक बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म एवं भावना संस्कार, इन नौ गुणों के अत्यन्त ध्वंस को मुक्ति बतलाते हैं और द्रव्यगुण कर्म आदि सातों पदार्था के साधम्र्य तथा वैधम्र्य के ज्ञान से उत्पन्न तत्वज्ञान सहित, आत्म - साक्षात्कार को उसका कारण बतलाते हैं । नैयायिक भी अत्यन्त दुःख निवृत्ति को ही मुक्ति का स्वरूप मानते हैं । किन्तु उसमें कारण, प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों के सम्यग् ज्ञान से जन्य तत्वज्ञान को स्वीकार करते हैं । आत्म - ज्ञान पूर्वक वैदिक कर्मों को अनुष्ठान करने से धर्म एवं अधर्म का समूल नाश हो जाता है और उससे देह, इन्द्रिय आदि सम्बन्ध का अत्यन्त उच्छेद हो जाता है । देह इन्द्रियादिक सम्बन्ध के इस अत्यन्त नाश का नाम ही मुक्ति है । ऐसा प्रभाकर मत के अनुयायी मानते हैं । ज्ञान और कर्म दोनों के अनुष्ठान से जड़बोध स्वरूप आत्मा में नित्य ज्ञान एवं नित्य सुख का उदय होता है । यह नित्य सुख ही व्यक्ति की मुक्ति है, ऐसा भट्टमतानुयायी स्वीकार करते हैं । नारद कृत पंचरात्र आदि शास्त्रों में निरूपित रीति के अनुसार वैष्णव धर्मा का पालन करने से विष्णु की कृपा प्राप्त हो जाने पर विष्णु - लोक में स्थित होना ही मुक्ति है । ऐसा वैष्णव मानते हैं । गोलोक में श्री कृष्ण के साथ रासलीला आदिक का अनुभव करना मुक्ति है । यह बल्लभ सम्प्रदाय के मानते हैं । पशुपति की पूजा करने से जीव का स्वयं का पशु के पाश छूट जाने पर नित्य पशुपति के पास रहना ही मुक्ति है । यह पशुपति मतानुयायियों का मत है । वेदान्त के ज्ञान द्वारा अज्ञान का नाश होने पर नित्य सुख - स्वरूप आत्मा का ज्ञान हो जाने के बाद यह नित्य सुखरूप आत्मा ही मुक्ति का स्वरूप है । ऐसा वेदान्तियों का अभिमत है । दुःख के अज्ञानजन्य होने के कारण ज्ञान हो जाने पर दुःख नाश भी आनुषंगिक ही हो जाता है । इस तरह मुक्ति सिद्धान्त के स्वरूप एवं कारण के विषय में और भी मत हैं । किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर दुःख का अत्यन्त परिहार तथा सुख प्राप्ति ही मुक्ति का स्वरूप सिद्ध होता है । सारे मतों का सारभूत सिद्धान्त यही है । छुटकारा अर्थ का बोधक मुक्ति शब्द भी इसी अर्थ को व्यक्त करता है कि मनुष्य की अत्यन्त दुःख निवृत्ति ही मुक्ति है । परन्तु वेदान्तियों को छोड़कर शेष सभी शरीर छोड़ने के बाद ही इस दुःख निवृत्ति रूप मुक्ति को मानते हैं । देह - त्याग से पूर्व जीवित अवस्था में नहीं, किन्तु वेदान्ती केवल ऐसा मानते हैं कि ज्ञान हो जाने के बाद अज्ञान के नष्ट हो जाने से अज्ञान मूलक सब कलेशों एवं तन में राग आदि का नाश जीवित अवस्था में ही हो जाता है । इसलिये ज्ञानी को वे जीवन - मुक्त कहते हैं । जीवन शब्द का व्युत्पत्यर्थ भी इसी बात को स्पष्ट कर रहा है कि जीवितावस्था में ही ज्ञानी को क्लेशों से निवृत्ति हो जाती है, जैसा कि श्रुति बतला रही है -
भिद्यते हृदय - ग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व - संयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥इति॥
ब्रह्मऋषि दादू दयाल जी महाराज वेदान्त के अनुसार जीवन - मुक्ति को ही वास्तविक मुक्ति मानते हैं । उनका मत है कि मनुष्य ज्ञान के द्वारा, परमेश्वर उपासना द्वारा, नामोच्चारण द्वारा, मन इन्द्रिय व प्राण का निरोध करता हुआ देह आदि के अध्यास को सर्वथा नष्ट कर दे और शुद्ध निरंजन आत्मा में अपनी सुरति को अविच्छिन्न रूप में लगा दे । जिस से सर्वदा उस शाश्वत आनन्द की अनुभूति होती रहे और किसी भी प्रकार के दुःख की प्रतीति न हो । जीते जी इस दशा को प्राप्त करना, उनके मत में वास्तविक मुक्ति है । यदि जीते जी मनुष्य इस अवस्था तक न पहुँच सका, तो फिर देह - त्याग के बाद दुःख - निवृत्ति व आनन्द की प्राप्ति की आशा रखना सर्वथा व्यर्थ है । इस तरह वे इस बात को भी मिथ्या मानते हैं कि मुक्ति किसी लोकान्तर की वस्तु है, जैसा कि दार्शनिक गो - लोक - वास को मुक्ति स्थान स्वीकार करते हैं । मुक्ति इसी संसार में और इसी शरीर में प्राप्त हो जाती है । उसके लिए लोकान्तर - गमन की आवश्यकता नहीं है । यदि इस संसार में वा इस शरीर में दुःख निवृत्तिरूप मुक्ति नहीं हुई तो वह लोकान्तर में जाने पर मुक्ति मिलेगी, इन बातों को वे सर्वथा मिथ्या एवं पाखण्ड मानते हैं । जैसे -
दादू जीवत छूटै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ ।
जीवत काटै कर्म सब, मुक्ति कहावै सोइ ॥
दादू जीवत ही दूतर तिरै, जीवत लंघे पार ।
जीवत पाया जगत गुरु, दादू ज्ञान विचार ॥
जीवत मेला ना भया, जीवत परस न होइ ।
जीवत जगपति ना मिले, दादू बूडे सोइ ॥
जीवत दूतर ना तिरे, जीवत न लंघे पार ।
जीवत निर्भय ना भये, दादू ते संसार ॥
दादू मूवा पीछे मुक्ति बतावैं, मूवा पीछे मेला ।
मूवा पीछे अमर अभय पद, दादू भूले गहिला ॥
मूवा पीछे बैकुंठ बासा, मूवा स्वर्ग पठावैं ।
मूवा पीछे मुक्ति बतावैं, दादू जग बोरावैं ॥
इस तरह जीवन - मुक्ति को ही वास्तविक मुक्ति माना है । देह - त्यागान्तर मुक्ति को मुक्ति नहीं माना । इसीलिए उनमें मुक्ति एवं मुक्ति का स्वरूप बतलाते हुए कह दिया है कि "जीवित मिले सो जीवते, मुये मिलि मर जात." अर्थात् जीते जी अविद्या आदि बन्धनों का परित्याग कर परमात्मा से मेल कर लिया तो वास्तविक जीना ही मुक्ति है । अगर ऐसा नहीं तो मरने के बाद परमात्मा में मिलना नहीं, मरना ही है, संसार में आवागमन करना है, वह मुक्ति नहीं है । इस विषय में एक युक्ति का भी प्रदर्शन उन्होंने किया है कि यदि देह मुक्ति से ही मुक्ति होवे, तो फिर देह - त्याग प्रत्येक व्यक्ति का होने से प्रत्येक व्यक्ति की ही मुक्ति होनी चाहिए । यह मुक्ति स्थूल शरीर के नाश से कभी सम्भव नहीं है, किन्तु सूक्ष्म शरीर एवं कारण शरीर अर्थात् अविद्या, काम, कर्म एवं पूर्व - प्रज्ञा के नाश से ही हो सकती है । ब्रह्मऋषि दादू जी महाराज ने स्थूल शरीर के नाश को पिण्ड - मुक्ति तथा सूक्ष्म व कारण शरीर के परित्याग को प्राण - मुक्ति पद से व्यवहृत किया है और यह भी बताया है कि पिण्ड - मुक्ति सब व्यक्ति करते हैं किन्तु प्राण - मुक्ति कहिए जीवन - मुक्ति कोई बिरले ही व्यक्ति सम्पादन किया करते हैं, जैसे -
पिण्ड मुक्ति सब कोई करै, प्राण मुक्ति नहीं होइ ।
प्राण मुक्ति सतगुरु करै, दादू बिरला कोइ ॥
कबीर जी, दादू जी आदि संतों ने जीवनमुक्त पुरुष के लिये "जीवतमृतक" शब्द का प्रयोग किया है । इनके मत में वेदान्तियों की तरह आत्मा सदा नित्यमुक्त व नित्यानन्द - स्वरूप है, केवल अविद्या के कारण ही हम संसारी व बन्धनयुक्त हो रहे हैं । यदि हमने आपा को मार दिया है तो हम मुक्त हैं और परमेश्वर से मिल जाते हैं । जीवित अवस्था में ही मुक्ति के एवं परमेश्वर - प्राप्ति के प्रतिबन्धक इस आपे को मार देना चाहिये । जिस साधक ने ऐसा कर लिया, वह आपा को मारने के कारण जीवत मृतक हो जाता है और इसका अध्यास नहीं होना ही परमात्मा के साक्षात्कार का प्रधान कारण है । ब्रह्मऋषि दादू जी ने बतलाया है कि जीव - पीव की प्राप्ति के प्रतिबन्धक इस "आपा" का परित्याग करे, और उस तत्व को पहिचाने, जिससे यह आपा पैदा होता है ।
साख्या
दादू तो तूं पावै पीव को, मैं मेरा सब खोइ ।
मैं मेरा सहजैं गया, तब निर्मल दर्शन होइ ॥
दादू तो तूं पावै पीव को,आपा कछू न जान ।
आपा जिस थैं ऊपजै, सोई सहज पिछान ॥
दादू तो तूं पावै पीव को, जे जीवत मृतक होइ ।
आप गँवाये पीव मिले, जानत है सब कोइ ॥
दादू मृतक तब ही जानिये, जब गुण इन्द्रिय नांहि ।
जब मन आपा मिट गया, तब ब्रह्म समाना मांहि ॥
उपर्युक्त रीति से जीते जी, मनोवृत्ति को पूर्णरूप से आत्मा में लगाकर, सुख दुःख आदि द्वन्द्वों से रहित हो जाना, यही ही जीवन - मुक्ति तथा वास्तविक मोक्ष दुःखत्रय से छुटकारा है ।
(क्रमशः)
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