मंगलवार, 26 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(१०६/१०८)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= माया का अंग १२ =*
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*जन जन के उठ पीछे लागै, घर घर भ्रमत डोलै ।*
*ताथैं दादू खाइ तमाचे, मांदल दुहुँ मुख बोलै ॥१०६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह राम की मायारूप नारी पतिव्रता नहीं है, क्योंकि यह जन - जन के पीछे लगकर घर - घर में कनक - कामिनी रूप से और काम आदि रूपों में भ्रमती फिरती है । विषयी, पामर, संसारी जन, इससे तमाचे खाते रहते हैं और फिर भी इससे चिपटते हैं । यह दंभी दुमुँही है एवं ढोलक की तरह दोनों तरफ से बोलती है, अर्थात् खाती है ॥१०६॥ 
नामरदां भोगी नहीं, मरद गये कर त्यागि ।
रज्जब रिद्धि कुँवरी रही, पुरुष प्राण नहीं लागि ॥ 
बणिया को माया दई, फकीर कृपा - निधान । 
कलम करत सुपनौं दियो, मारौं तोहि बंधान ॥ 
दृष्टान्त - १ - एक संत मार्ग में जा रहे थे । बनिया ने नमस्कार किया । संत को अपनी दुकान पर बैठाया । बनिया बोला - "महाराज ! कृपा करो ।" तब संत ने माया को कहा, "तू बनिया के यहाँ रह ।" संत तो वहाँ से रम गये । बनिया न तो खावे और न खाने दे किसी को । माया ने देखा, मुझे किस दुष्ट को दे गये, बन्द रखता है । एक दिन बनिया बैठा - बैठा नेजे की कलम चाकू से बना रहा था । बैठे - बैठे को स्वप्ना आया । माया ने आवाज दी कि तैंने मुझे बन्द कर रखा है, मैं तुझे बांध कर मारूँगी । बनिया मन में सोचने लगा, यह क्या हुआ, परन्तु पहचान नहीं पाया । ऐसे पुरुष इसके तमाचे खाते हैं ।
माया जाती देखकर, संता पूछ्या घाव । 
‘पामर लूरी पीठ मम, छाती त्यागी पांव’ ॥ 
दृष्टान्त - २ - माया स्त्री रूप में जा रही थी । दुखी देखकर संत ने पूछा - "बाई ! तुम क्यों दुखी हो ? तुम्हारी पीठ में घाव कैसे हो गये ?" और दयालु संत कपड़े से उसकी पीठ का घाव पोंछने लगे । माया बोली - संसार में पामर विषयी मनुष्यों ने तो मेरी पीठ नोंच ली और त्यागी मेरी छाती पर पांव रखते हैं, इससे मैं दुखी हूँ ।
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*विषय विरक्तता*
*जे नर कामिनी परहरैं,ते छूटैं गर्भवास ।*
*दादू ऊँधे मुख नहीं, रहैं निरंजन पास ॥१०७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो उत्तम विवेकी पुरुष कामिनी का संग कहिए स्पर्श त्याग करते हैं, अपने मन को काबू में रखते हैं, वे न तो विषय - भोग में औंधे होते हैं और न गर्भ में आकर औंधे झूलते हैं, अर्थात वे जन्म - मरण को प्राप्त नहीं होते हैं । वे अपने स्वस्वरूप निरंजन में ही स्थिर हो जाते हैं ॥१०७॥ 
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*रोक न राखै, झूठ न भाखै, दादू खरचै खाइ ।*
*नदी पूर प्रवाह ज्यों, माया आवै जाइ ॥१०८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! उत्तम पुरुष सच्चे संत, राम की माया को "रोक न राखै" यानी जमा करके नहीं रखते और झूठ नहीं बोलते, परोपकार में खर्च करते हैं । दीन - दुखी, राष्ट्र - सेवा आदि में खर्च करते हैं, आप भी उपभोग करते हैं । उनके सामने नदी के जल की भांति माया आती जाती रहती है । वे माया से निर्लिप्त ही रहते हैं और माया का सदुपयोग करते हैं ॥१०८॥
(क्रमशः)

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