॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= माया का अंग १२ =*
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*सदका सिरजनहार का, केता आवै जाइ ।*
*दादू धन संचय नहीं, बैठा खुलावै खाइ ॥१०९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर का प्रेरा हुआ अर्थात् भेजा हुआ धन सोना, चांदी, नोट आदि जो भी प्राप्त होवे, उस धन को जैसे आया है, उसी प्रकार उसको शुभ कर्मों में, जन - समुदाय की सेवा में खर्च करते रहना चाहिये और अपने उपयोग में भी लावे । वही इस मायावी धन का सदुपयोग कहलाता है । वही सिरजनहार परमेश्वर की आज्ञा में रहने वाला संत है ॥१०९॥
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*माया*
*जोगिनी ह्वै जोगी गहै, सूफिनी ह्वै कर शेख ।*
*भक्तिनी ह्वै भक्ता गहै, कर कर नाना भेख ॥११०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया की ऐसी प्रबलता है कि यह राम की माया जोगियों के घर में तो जोगिनी होकर बैठी है और शेखों के घर में सूफिनी हो रही है । भक्तों के घर में भक्तानी होकर रहती है । ऐसे नाना प्रकार के अपने रूप बनाकर सभी की अर्थात् अपने अधीन बना रखे हैं और सभी इसमें आकर्षित हो रहे हैं, यह ऐसी प्रबला है ॥११०॥
जाया माया बस किये, जगत भगत जा रूप ।
मोहन मोहे मोह कर, पापनि गेरे कूप ॥
प्यारी सब प्राणी गिले, कर - कर गाढ़ी प्रीत ।
जगन्नाथ जगदीस लौं, बिरला पहुँता जीत ॥
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*बुद्धि विवेक बल हरणी, त्रय तन ताप उपावनी ।*
*अंग अगनि प्रजालिनी, जीव घरबार नचावनी ॥१११॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह राम की माया स्त्री रूप बनकर विषयी - पामर मनुष्यों की बुद्धि के विवेक को हर लेती है और शारीरिक शक्ति को नष्ट करती है । यह माया तीन तापों को शरीर में उत्पन्न करती है और अपने शरीर में कामाग्नि से मनुष्य, पशु, पक्षी, सभी को जलाती है । यह मन रूप जीव को चौरासी में नचाती रहती है । इसलिये इस मायारूपी स्त्री को इन्द्रिय - स्वाद के लिए उपयोग में नहीं लाना चाहिए । स्त्री - पुरुष, दोनों ही ने मनुष्य जन्म प्राप्त किया है, एक ही आत्मारूप से अपने स्वरूप को समझना चाहिये ॥१११॥
(क्रमशः)
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