सोमवार, 20 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(३०/३२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*जिज्ञासु कसौटी*
*ज्यों ज्यों होवै त्यों कहै, घट बध कहै न जाइ ।* 
*दादू सो सुध आत्मा, साधू परसै आइ ॥३०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! अन्तःकरण की शुभ - अशुभ वृत्तियों को, कहिए वासनाओं को न्यून अधिक न बनाकर सरल भाव में ही यथार्थ रूप से सतगुरु को निवेदन करे अर्थात् बतलावे, ऐसे पवित्र पुरुष, संतों की संगति के अधिकारी हैं ॥३०॥ 
नृप नाभाग सु पुत्र लघु, यज्ञ संपूर्ण कीन्ह । 
दीयो वसु अवशेष सब, पुनः सब शिवजी दीन्ह ॥ 
दृष्टान्त ~ राजा नाभाग का छोटा पुत्र किसी कारण वनवास में घूमता - घूमता वहाँ पहुँच गया, जहाँ कि ब्राह्मण लोग यज्ञ कर रहे थे । पूर्ण आहुति का समय था । पूर्ण आहुति कराने वाले मंत्र को, सभी ब्राह्मण भूल गये । वह राजकुमार वहाँ उपस्थित था । वह बोला “मुझे याद है ।” ब्राह्मणों ने कहा ~ “तुम बोलकर, पूर्ण आहूति दिला दो ।” 
उस राजकुमार ने मंत्र बोला और पूर्ण आहुति करा दी । सभी ब्राह्मण लोगों ने पूजा की सामग्री और दक्षिणा आदि ग्रहण कर लिया । जो शिव जी का शेष भाग था, वह राजकुमार को बता दिया । राजकुमार जब उसे उठाने लगा, शिवजी प्रगट हो गये । बोले ~ “कहाँ ले जाता है ?” राजकुमार ~ “प्रभु, मुझे तो उन्होंने बताया है ।” 
भगवान् शंकर उसकी सरलता और सत्यता पर प्रसन्न होकर बोले ~ “ब्रह्मद्रोही ! मांग ।” राजकुमार ~ “प्रभु, हमारा राज, हमें प्राप्त हो जावे ।” भगवान् शंकर बोले ~ “तथास्तु, जाओ ऐसा ही हो ।” 
ब्रह्मऋषि सतगुरु फर्माते हैं कि “ज्यों ज्यों होवै त्यों कहै ।” 
*सत्संग महिमा* 
*साहिब सौं सन्मुख रहै, सत संगति में आइ ।* 
*दादू साधू सब कहैं, सो निष्फल क्यों जाइ ॥३१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो साधक साहिब परमात्मा से सदैव सन्मुख रहे, अर्थात् उनके नाम - स्मरण में, निष्काम कर्मो द्वारा लगा रहता है और ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों के सत्संग में आता है । सभी संत कहते हैं कि वह जिज्ञासु स्वस्वरूप फल को प्राप्त कर मुक्त हो जाता है ॥३१॥ 
*ब्रह्म गाय त्रिलोक में, साधु अस्तन पान ।* 
*मुख मारग अमृत झरै, कत ढूँढै दादू आन ॥३२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह सारा ब्रह्माण्ड ही विराट् का स्वरूप मानो गाय का स्थूल शरीर है, और व्यापक चेतन ही इसमें दूध है । इस गऊ के ब्रह्मवेत्ता संत ही स्तन हैं । अतः उन संतों के आत्म - उपदेश ही अमृत झरै कहिए - प्रकाशता है । इस प्रकार जिज्ञासु उन महापुरुषों की सत्संगति के द्वारा जीवन - मुक्ति का आनन्द रूप दूध पीते हैं । भक्ति या ज्ञान अमृत संतों को संगति में प्राप्त होता है ॥३२॥ 
अमी पताल न पाइये, नहीं ससि संग आकास । 
प्रत्यक्ष अमी जो पाइये, जैमल साधू पास ॥ 
(क्रमशः)

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