मंगलवार, 21 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(३३/३५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*दादू पाया प्रेम रस, साधु संगति मांहि ।*
*फिरि फिरि देखे लोक सब, यहु रस कतहूँ नांहि ॥३३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे मुक्त संतों की संगति में परमेश्‍वर का प्रेमाभक्ति रूपी अमृत, साधक पुरुषों ने प्राप्त किया है । लोक - लोकान्तरों में घूम - घूम कर विचार कर देखा, तो मायिक सुख तो बहुत हैं, परन्तु अनन्य भक्तिरूपी यह सुख कहीं भी नहीं प्राप्त होता ॥३३॥ 
अमी पाताल न पाइये, ना सतसंग अकास । 
प्रत्यक्ष अमृत पाइये, जैमल साधू पास ॥ 
*दादू जिस रस को मुनिवर मरैं, सुर नर करैं कलाप ।* 
*सो रस सहजैं पाइये, साधु संगति आप ॥३४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिस ब्रह्मानन्द रूप रस के लिये देव, मनुष्य, मुनीश्‍वर, सब प्रयत्न करते हैं, वह ब्रह्मवेत्ता संतों की संगति में बिना प्रयास ही प्राप्त होता है । क्योंकि उत्तम जिज्ञासुओं के कल्याण के लिये परमेश्‍वर ही संतों के रूप में प्रकट होकर ज्ञान उपदेश करते हैं । जैसे ~ ब्रह्मऋषि दादू दयाल, कबीर साहिब आदि ॥३४॥ 
बाजिंद साधु संग को, फल कहा वर्णत कोइ । 
तांबा तैं कंचन भयो, पारस परसै सोइ ॥ 
*संगति बिन सीझे नहीं, कोटि करे जे कोइ ।* 
*दादू सतगुरु साधु बिन, कबहुँ शुद्ध न होइ ॥३५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! चाहे करोड़ों प्रकार के बहिरंग साधन करो, परन्तु सच्चे ब्रह्मवेता संतों की संगति बिना आत्म - ज्ञान नहीं होता । क्योंकि सतगुरु - कृपा और ब्रह्मवेत्ता संतों की संगति से ही शुद्ध ब्रह्म की उपासना होती है ॥३५॥ 
सत्संगति बिन ज्यों भजन, लहै न सुख की सीर । 
‘परसा’ मिलै न सिंधु को, नदी बिहूणां नीर ॥ 
(क्रमशः)

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