बुधवार, 15 मई 2013

= भेष का अंग १४ =(४६/४८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= भेष का अंग १४ =*
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*शब्द सूई सुरति धागा, काया कंथा लाइ ।*
*दादू जोगी जुग जुग पहिरै, कबहूँ फाट न जाइ ॥४६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! काया रूपी तो ‘कंथा’ कहिए - गूदड़ी है और गुरु का ज्ञान रूपी शब्द ही सूई है, सुरति ही धागा है । इस सुरति रूप धागे से इस गूदड़ी को नाम - स्मरण द्वारा सींलो । हे अधिकारी पुरुषों ! इस प्रकार इस काया गूदड़ी रूप भेष को राम - भक्ति के लिए धारण करो तो फिर यह युग - युगान्तर में न कभी जीर्ण - शीर्ण होगी और न कभी फटेगी, अर्थात् नष्ट नहीं होगी और अजर अमर भाव को प्राप्त होगी ॥४६॥ 
*ज्ञान गुरु का गूदड़ी, शब्द, गुरु का भेष ।* 
*अतीत हमारी आत्मा, दादू पंथ अलेख ॥४७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जीव ब्रह्म की एकता का जो ज्ञान है, वही तो मानो गूदड़ी है और गुरु का “अहं ब्रह्मास्मि, सोऽहं” यह महावाक्य धारण करना ही मानो भेष है । आभास बुद्धि ही मानो साधु है । ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि हे साधक ! यही मार्ग परमेश्‍वर को प्राप्त करने का है ॥४७॥ 
मानव रे ! परमेश्‍वरतो 
भयमाश्रय मानवता विधुराणि, 
गर्वभराणि निजार्थपराणि 
जहीहि जही ह्यसुराचरणानि । 
मानव - बोधपराणि यदीय 
वचांसि भवन्ति दयामधुराणि, 
तस्य हि दादुदयालुवरस्य 
मृदु चरणौ शरणी करवाणि ॥ 
*इश्क अजब अबदाल है, दर्दवंद दरवेश ।* 
*दादू सिक्का सब्र है, अक्ल पीर उपदेश ॥४८॥* 
इति भेष का अंग सम्पूर्ण ॥अंग१४॥साखी ४८॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता मुक्त - पुरुषों का जिज्ञासुओं को यही उपदेश है कि परमात्मा का अद्भुत प्रेम ही सिद्धि करामात है और परमेश्‍वर के विरह के दर्द में बंधकर रहना ही उनका साधुपना है । उस साधु का ‘सब्र’=संतोष, ही ‘सिक्का’=भेष बाना है । इस प्रकार से जो साधक ! इस भेष को धारण करता है, उनका जीवन ही इस संसार में सफल है ॥४८॥ 
इति भेष का अंग टीका सहित सम्पूर्ण ॥अंग१४॥साखी ४८॥ 
(क्रमशः)

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