बुधवार, 15 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(१/३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
“मन गहि राखै एक सौं, दादू साधु सुजान ।” इस सूत्र का व्याख्यान स्वरूप भेष के अंग के बाद, अब साधु के स्वरूप लक्षण कहेंगे । 
*मंगलाचरण* 
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।* 
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥* 
टीका ~ हरि गुरु संतों को हमारी वंदना है, जिनकी कृपा से भेष आदि चतुराई से निष्पक्ष होकर मुमुक्षु निर्विकार साधुता से जीवन - मुक्ति को प्राप्त होता है ॥१॥ 
*साधु महिमा* 
*दादू निराकार मन सुरति सौं, प्रेम प्रीति सौं सेव ।* 
*जे पूजे आकार को, तो साधु प्रत्यक्ष देव ॥२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यदि निराकार ब्रह्म की उपासना करनी है तो, अन्तर्मुख वृत्ति करके प्रेम और प्रीति के सहित स्वस्वरूप आत्मा में स्थिर रहो अर्थात् आत्म - विचार लगाओ । और आकार कहिए - साकार की अर्थात् सगुण ब्रह्म की उपासना करो तो, ब्रह्मवेत्ता मुक्त - पुरुष सगुण रूप हैं, उनकी सेवा करो ॥२॥ 
रूप बिहूणां जे भजै, ज्ञानी धन आराध । 
जे तूं सेवै रूप कूं, तो सैंदेही साध ॥ 
*दादू भोजन दीजे देह को, लिया मन विश्राम ।* 
*साधु के मुख मेलिये, पाया आतमराम ॥३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे शरीर को भोजन देने से निराकार, निरवयव मन के सहित, सब इन्द्रियाँ तृप्त हो जाती हैं, वैसे ही ब्रह्मनिष्ठ संतों की सेवा अर्थात् भोजन के द्वारा परमेश्‍वर प्रसन्न होकर स्वीकार करते हैं । जैसे जीव के शरीरों में सबसे उत्तम मनुष्य का शरीर है, इसी प्रकार साक्षीभाव से परमेश्‍वर सर्व शरीरधारियों में है, परन्तु ब्रह्मनिष्ठ संत तो साक्षात्कार भगवान् के स्वरूप ही हैं ॥३॥ 
अन्तर्यामी गर्भगत, साधु सुन्दरि माहिं । 
रज्जब पोषे एक के, दोनों पोषे जाहि ॥ 
पैसो तंदुल दोवटी, खेत धना को जोइ । 
बखना पूज्यां साध नै, लाभ घनेरो होइ ॥ 
धन्नों ने भोजन दिया, संतन को सुख मान । 
खेत सु निपजा बीज बिन, और मिले भगवान ॥ 
दृष्टान्त ~ ब्रह्मऋषि दादूदयाल जी महाराज अहमदाबाद कांकरिया तालाब पर बालकों के साथ कीर्तन कर रहे थे, तब संतरूप में भगवान् वृद्धरूप धरके प्रकट हुए और ब्रह्मऋषि ने भगवान् की आज्ञानुसार उन्हें एक पैसा लेकर अर्पण किया, अर्थात् भगवान् की पूजा की, उसी से ब्रह्मऋषि के सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो गये । ऐसे ही सुदामा जी ने भगवान् को तंदुल भेंट करके भगवान की पूजा की, उसी से सुदामा के घर आठ सिद्धि, नौ निधि आकर बस गई । 
इसी प्रकार कबीर साहब ने वृद्धरूप में भगवान् को रेजी भेंट करके पूजा और भगवान् कबीर के तीन दफा बालद आये । धना भक्त ने संतों को पूजा और बोने का बीज संतों को बांट दिया । संतों ने भगवान् के भोग लगाकर धना को तूम्बे के बीज दे गये । धना ने लेकर निऱोधार्य करके खेत में बो दिये । तुम्बों के अन्दर गेहूँ निपज आये । सच्चे संतों की सेवा से अपूर्व लाभ प्राप्त होता है । 
(क्रमशः)

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