मंगलवार, 14 मई 2013

= भेष का अंग १४ =(४३/४५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= भेष का अंग १४ =*
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*आपा निर्दोष* 
*हिरदै की हरि लेइगा, अंतरजामी राइ ।* 
*साच पियारा राम को, कोटिक करि दिखलाइ ॥४३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वह हरि, अन्तर्यामी परमेश्‍वर, सबके अन्तःकरण के भाव को जानते हैं । राम को तो सच्चे भक्त ही प्रिय हैं, चाहे कोई करोड़ों ऊपरी आडम्बर बनाकर दिखावे, उसको राम नहीं देखते अर्थात् ऊपर के व्यवहार को राम नहीं अपनाते, अतः ये तो सब निष्फल हैं ॥४३॥ 
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*दादू मुख की ना गहै, हिरदै की हरि लेइ ।*
*अन्तर सूधा एक सौं, तो बोल्याँ दोष न देइ ॥४४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वह सत्य - स्वरूप परमेश्‍वर मुख के व्यवहार को नहीं ग्रहण करते । वह पापों के हर्ता हरि, अन्तःकरण के भाव को लेते हैं । जो अन्तःकरण एक हरि से निष्काम नाम - स्मरण से शुद्ध है, तो मुँह से चाहे कुछ भी बोलो, उसको दोष नहीं लगता ॥४४॥ 
संत दोइ इक ठौर थे, इक कपटी इक शुद्ध । 
शुद्ध राम को गालि दे, कपटी स्तुति अबुद्ध ॥ 
दृष्टान्त ~ एक संत पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे थे । दूसरे समीप में ही इमली के वृक्ष के नीचे बैठे थे । इमली के वृक्ष के नीचे बैठने वाले खूब सुन्दर मृगछाला बिछाये हुए, हाथ में माला लेकर परमेश्‍वर का नाम स्मरण करते । परन्तु अन्तःकरण में स्वर्ग बैकुण्ठ आदि की वासना को लिए हुए थे । दूसरा पीपल के वृक्ष के नीचे विरही भक्त राम को गाली देता था । 
नारद जी एक समय मृत्यु - लोक में घूमते हुए उधर आ गये, जिधर दोनों संत तप कर रहे थे । इमली के वृक्ष वाले संत को आकर नमस्कार किया अपना परिचय दिया, “कुछ समाचार हो तो मुझे बताइये, मैं भगवान् के पास जा रहा हूँ ।” संत बोला ~ “भगवान् को बोल देना कि अब आप का कोई अहसान मेरे पर नहीं है क्योंकि माला के मणियां घुमाते - घुमाते तो अंगुलियों के पोरवे घिस गये और बैठे - बैठे खून सूख गया, बोलते - बोलते वाणी शुष्क हो रही है । इस तप के फलस्वरूप मुझे जल्दी ही बैकुण्ठ में बुलाकर मेरे लिए सब प्रकार के वहाँ भोग तैयार रखें, यह कह देना ।” नारद बोले ~ “जरूर कहूँगा ।” 
पीपल के वृक्ष वाले के पास गये और नमस्कार किया । वह भगवान् को गालियाँ दे रहा था । नारद सुनकर चकित हो गये और बोले ~ “महात्मा जी ! कोई भगवान् के पास समाचार भेजने हैं, तो मुझे कहिये ।” महात्मा बोला ~ “तुम कौन हो?” “मैं नारद ।” “महात्मा बोले ~ नारद जी, आप जानते हो कि गाली देना बड़ा अपराध है । साधारण मनुष्य को भी अगर कोई गाली देवे, तो वह पीटने को तैयार हो जाता है । मैं भगवान् को गालियाँ दे रहा हूँ । इस मेरे पाप का क्या अन्त है? परन्तु आप भगवान् से यह बोल देना कि जब तक आप नहीं मिलोगे, तब तक गालियाँ ऐसे ही देता रहूँगा ।” 
नारद जी नमस्कार करके भगवान् के पास जाकर नमस्कार किया । उपरोक्त सारा वृत्तान्त सुना दिया । भगवान् बोले ~ “मैं तो गाली देने वाले को मिलूंगा ।” नारद ~ “यह क्या?” भगवान् ~ “मेरे वचन में जो विश्‍वास करेगा, उसी को मिलूंगा । नारद वापस आये और बोले ~ ‘जितने इमली के पत्ते हैं, उतने आप के जन्म और होगें, तब बैकुण्ठ में पहुँचोगे ।” माला तोड़ फेंकी और मृगछाला उठाकर फेंक दी । कहने लगे ~ “अब मैं कभी उस भगवान् की आराधना नहीं करूँगा ।” 
दूसरे को बोले ~ “जितने पीपल के पत्ते हैं, उतने तुम्हारे और जन्म होंगे, तब दर्शन होगा ।” नाचने लगा प्रफुल्लित हो गया, बारम्बार नारद को नमस्कार करने लगा, “दर्शन होंगे । दर्शन होंगे ।” इस प्रकार ‘धन्य ! धन्य !’ ज्योंही शब्द मुंह से निकलने लगे, भगवान् ने प्रकट होकर हृदय से लगा लिया । “हे नारद ! इनके अन्तःकरण में मेरी भक्ति - युक्त विरहभाव है, ऐसे भक्त मुझे प्रिय हैं ।” ब्रह्मऋषि सतगुरु फरमाते हैं कि ~ “हिरदै की हरि लेइगा ।” 
*आत्म अर्थी भेष* 
*सब चतुराई देखिये, जे कुछ कीजे आन ।* 
*मन गह राखै एक सौं, दादू साधु सुजान ॥४५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमात्मा की भक्ति से अलग जो भी कुछ करणी कर्त्तव्य है शारीरिक व मानसिक क्रियायें हैं, ये सभी संसार की चतुरता भरी हैं । परन्तु जो अपने मन को एकाग्र करके परमेश्‍वर के नाम - स्मरण में लगाता है, वही सबमें सत्य, सुजान, प्रवीण साधक है ॥४५॥ 
(क्रमशः)

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