गुरुवार, 16 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(४/६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*ज्यों यहु काया जीव की, त्यों सांई के साध ।* 
*दादू सब संतोषिये, मांहि आप अगाध ॥४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मनुष्य का शरीर जैसे जीव को अति उत्तम प्रिय लगता है, इसी प्रकार सच्चे संत, भगवान् को अति प्रिय हैं मानो उन सच्चे संतों का शरीर भगवान् का ही शरीर है । ऐसे सच्चे संतों की, भगवान् के भक्तों की, कायिक, वाचिक, मानसिक , तीनों प्रकार से सेवा कीजिये । वही मानो अगाध परमेश्‍वर की सेवा है ॥४॥ 
भक्त अंग भगवंत का, नहीं नेक संदेह । 
जन पोषे ‘जगन्नाथ’ जन, तिन तोषे हरि तेह ॥ 
द्वादस कोटि यज्ञ में जीम्या, 
शंख न बाज्यो रह्यो खिसाइ । 
बखना संत साध घर जीम्यौ, 
शंख दरूड्यो मंगल गाइ ॥ 
दृष्टान्त ~ पांडवों के यज्ञ में बारह करोड़ ब्राह्मणों के रोज भोजन ग्रहण करने पर भी पंचायन शंख नहीं बजा । बखना जी कहते हैं कि वाल्मीकि संत जब पाँडवों के यहाँ आकर जीमे, तब शंख गर्जना करके मंगल गाने लगा । 
*सत्संग महात्म* 
*साधु जन संसार में, भव-जल बोहित अंग ।* 
*दादू केते उद्धरे, जेते बैठे संग ॥५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संतों का सत्संग ही मानो एक जहाज रूप है । जितने जिज्ञासु उनकी शरण में आते हैं, उन सभी को अपने सत्संग रूपी जहाज में बैठाकर अर्थात् उपदेश में स्थिर करके संसार समुद्र से पार कर देते हैं । ब्रह्म स्वरूप साक्षात्कार कराते हैं ॥५॥ 
भौजल या संसार में, जन जगदीश जहाज । 
‘जगन्नाथ’ जीवनमयी, सति कर साधु समाज ॥ 
सुरता जौहरी मिलन की, तो करिये सतसंग । 
बिना परिश्रम पाइये, अविगत देव अभंग ॥ 
परमेश्‍वर रूप जौहरी से मिलने की जिज्ञासा है, तो सत्संग करिये । सत्संग द्वारा ‘बिना परिश्रम’ कहिए बहिरंग साधनों के कष्ट उठाये बिना ही, अविगत, अव्यक्त, आकृति रहित, अभंग, ऐसे परमेश्‍वर के स्वरूप को प्राप्त करिये । 
*साधु जन संसार में, शीतल चंदन वास ।* 
*दादू केते उद्धरे, जे आये उन पास ॥६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत इस संसार रूप वन में शीतल और सुगन्धि रूप चन्दन के समान हैं । जैसे चन्दन के आस - पास के सभी वृक्षों में चन्दन की शीतलता और सुगन्धि प्रवेश करती है, इसी प्रकार जितने उत्तम जिज्ञासु उन संतों की शरण लेकर उपदेश ग्रहण करते हैं, उनमें उनके शीतलता, सुगन्धि रूप शान्ति दान्ति आदिक सम्पूर्ण सद्गुण प्रवेश कर जाते हैं और वे संतरूप ही बन जाते हैं ॥६॥ 
चंदन रूपी संत जन, ब्रह्म वास मकरन्द । 
सीतल सुख आनन्दमय, पावै परमानन्द ॥ 
(क्रमशः)

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