गुरुवार, 16 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(७/९)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*साधु जन संसार में, हीरे जैसा होय ।*
*दादू केते उद्धरे, संगति आये सोय ॥७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर के प्यारे सच्चे संत इस संसार में हीरे के तद्वत् होते हैं । जैसे हीरे का अंजन आंखों में आंजने से कल्प हो जाता है, यानी वृद्ध अवस्था से युवा अवस्था बन जाती है । इसी प्रकार उन तत्त्ववेत्ताओं की संगति में जितने उत्तम जिज्ञासु आते हैं, उन सबका ही उद्धार हो जाता है अर्थात् वे सभी संसार - समुद्र से तर जाते हैं ॥७॥ 
*साधु जन संसार में, पारस प्रकट गाइ ।* 
*दादू केते उद्धरे, जेते परसे आइ ॥८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे ब्रह्मनिष्ठ संत, इस संसार में प्रकट(प्रत्यक्ष) पारस रूप हैं । एक उत्तम पारस, जो कि पारस ही बनाता है । दूसरा मध्यम पारस, जो कि सोना बनाता है । तीसरा कनिष्ठ पारस, जो सोना तो बनाता है परन्तु कुछ काल के बाद वह वापिस ही जो धातु थी, उसी रूप में हो जाता है । यहाँ उत्तम पारस का प्रसंग है । ऐसे उत्तम पारसरूप ब्रह्मनिष्ठ संत, जिनके सत्संग से उत्तम जिज्ञासु ब्रह्मभाव को ही प्राप्त होते हैं ॥८॥ 
*रूख वृक्ष वनराइ सब, चंदन पासैं होइ ।* 
*दादू बास लगाइ कर, किये सुगन्धे सोइ ॥९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे छोटे वृक्ष, मध्यम दर्जे के पेड़, जंगल के भारी वृक्ष, वे सब चन्दन के आस - पास होवें, तो चन्दन उनमें अपनी शीतलता, सुगन्धि, वायु के द्वारा प्रवेश कर देता है । इसी प्रकार जहाँ चन्दन रूप संतजन होते हैं, उनके सम्पर्क में उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ, तीनों प्रकार के अधिकारियों का उद्धार हो जाता है ॥९॥ 
(क्रमशः)

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