रविवार, 19 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(२१/२३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= साधु का अंग १५ =*
*साधु मिलै तब ऊपजै, हिरदै हरि की प्यास ।* 
*दादू संगति साधु की, अविगत पुरवै आस ॥२१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब सच्चे संत मिलते हैं, तब हरि को मिलने की अन्तःकरण में जिज्ञासा उत्पन्न होती है । ऐसे संतों की संगति के द्वारा ही अविगति परमेश्‍वर जिज्ञासु की आशा पूरी करते हैं, अर्थात् दर्शन देते हैं । 
*साधु मिलै तब हरि मिलै, सब सुख आनन्द मूर ।* 
*दादू संगति साधु की, राम रह्या भरपूर ॥२२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओ ! जब ब्रह्मवेत्ता संत मिले तो मानो, परमेश्‍वर ही मिला है । क्योंकि संतजन ही लौकिक सुख और परमानन्द को देने वाले हैं । संतों की संगति क्या है ? मानो कथा कीर्तन के द्वारा, वहाँ राम जी ही परिपूर्ण रूप से भरपूर रम रहे हैं । ऐसे संतों के हृदय में साक्षात्कार होकर के स्वयं परमेश्‍वर ही विराजते हैं ॥२२॥ 
हरि सरभर ये साध हैं, गुरु गम किया विचार । 
ज्ञानी जब साधू मिले, जाणूं मिले करतार ॥ 
ज्ञानी जैसा राम है, तैसा साधू जोइ । 
इनकी संगति बैसतां, मुक्ति परम पद होइ ॥ 
*चौंप चर्चा* 
*परम कथा उस एक की, दूजा नांही आन ।* 
*दादू तन मन लाइ कर, सदा सुरति रस पान ॥२३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संतों के द्वारा ही परमेश्‍वर की परम कथा, कहिये श्रेष्ठ उपदेश प्राप्त होता है । वही परम कथा है, सो संत ही सुनाते हैं । इसलिये संतों की संगति में तन, मन को स्थिर करके सत् चित् आनन्द में ही वृत्ति लगाइये ॥२३॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें